पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/७५

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विलासः१]
(५५)
भाषाटीकासहितः।


प के प्रति खल में कोई भेद न रख उसी अकेले को आनि द्विप और वायु बनाया इससे 'अभेदरूपक' अलंकार हुआ)

खलास्तु कुशलाः साधुहितप्रत्यूहकर्म्मणि।
निपुणाः फाणिनः प्राणानपहर्त्तुं निरागसाम्॥११०॥

निरपराधी जीवौं के प्राण हरण करने में (जैसें) सर्प प्रवीण होते हैं (वैसेही) सत्पुरुषों के अहित करने में दुर्जन कुशल होते हैं (उपमेय जो साधु और उपमान जो सर्प इनके धर्म में समानता कहने से 'प्रतिवस्तूपमा' अलंकार हुआ)

वदने विनिवेशिता भुजंगी पिशुनानां रसनामिषेण धात्रा।
अनया कथमन्यथावलीढा नहि जीवंति जना मनागमंत्राः[१]॥१११॥

ब्रह्मानें पिशुनजनौं [पर छिद्र ढ़ूढ़नेवाले पुरुषों] के मुख में जिह्वाके मिषसे सर्पिणी स्थापन की है, यदि (किसी को शंका उत्पन्न हो कि यह बात) अन्यथा है तो (उसके निवृत्यर्थ यही प्रश्न है कि जो जिह्वा भुजंगी नहीं तो) उस से किंचित् मात्र भी स्पर्श किये गए मंत्रहीन [अविवेकी] मनुष्य क्यों नहीं जीते अर्थात् क्यों प्राण त्याग करते हैं? (इसमें दुर्जनों की जिह्वाको भुजंगी कह कर अर्थ के दृढ़ करने के लिए मनुष्यों का प्राण त्याग करना सहेतुक विशेषण दिया इससे 'काव्यलिंग' अलंकार हुआ। जिह्वा के धर्म को गोपन


  1. यह 'माल्यभारा' वृत्त है।