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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/९०

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(७०)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

लपंती। आरादुपाकर्ण्य गिरं मदीयां सौदामिनीयां सुषमामयासीत्॥१२॥

सखियों के साथ खेलमें निमग्न होने से धीरे धीरे मेरे वचनों को कहनेवाली[] वाला [नवला स्त्री] दूर से मेरी वाणी को श्रवण करके सौदामिनी [विद्युल्लता] की शोभाको प्राप्त हुई (जैसे दामिनी चमक के तत्काल लोप हो जाती है वैसेही वह कामिनी भी दृष्टिगोचर होते ही कहीं की कही चली गई अर्थात् लज्जावश उस स्थान को तुरंत त्याग स्थानांतर में प्रवेश करती भई)

मुधैव नक्तं परिकल्प्य गन्तुं मृषैव रोषादुपजल्पतो मे।
उदश्रुचंचन्नयना नतांगी गिरं न कां कामुररीचकोर[]॥१३॥

रात्रि में जाने की वृथा कल्पना करके, मुझ, मृषा [झूंठ] शेष के प्रकट करनेवाले की, अश्रुवों से चंचल नयनौंवाली नतांगी (भामिनी) ने कौन कौन बात अंगीकार नहीं की? अर्थात् जो कुछ कहा सभी किया। तात्पर्य-वियोगके दुःखको परम असह्य मान अश्रुपात करती हुई कामिनी ने उन बातोंका भी करना स्वीकार किया जिन्हें वह पहिले करनेको सकुचती थी।

तवधि कुशली पुराणशास्त्रस्मृतिशवचारुवि-


  1. मेरे वचनोंका अनुकरण करनेवाली अर्थात् जैसामैंभाषण करता था वैसे ही बोलनेवाली।
  2. 'उपेन्द्रवज्रा'।