ऐसी) बालाने खिडकीमें मुख रखेहुए मुझे देख शीघ्रतासे घरमें प्रवेश किया।
विधाय सा मद्वदनानुकूलं कपोलमूलं हृदये शयाना।
तन्वी तदानीमतुलां बलारेः साम्राज्यलक्ष्मीमधरीचकार[१]॥३२॥
हृदय में शयल करनेवाली कृषांगी (भामिनी) ने मेरे मुखके अनुकूल (अर्थात् जैसा चाहिये वैसा मुखके ऊपर) कपोलमूल [चिबुक] को स्थापन कर उस समयमें देवेन्द्र की अतुल राज्य संपत्ति के सुखको (भी) तिरस्कार किया (सुरेशवैज्ञवसंजात सुखसे इस सुखको अधिक माना यह भाव)
मुहुरर्थितयाद्य निद्रया मे बत यामे चरमे निवेदितायाः।
चिबुकं सुदशो स्पृशामि यावन् मयि तावन्मिहिरोऽपि निर्दयोऽभूत्[२]॥३३॥
बारंबार प्रार्थना की गई निद्रा से आज चतुर्थ प्रहर में सनिवेदन लाईगई सुलोचना (भामिनी) की चिबुक को जब तक मै स्पर्श करूं तब तक (दैव तो हई है पै) सूर्य भी मेरे हेत निरदई हुआ (विरही नायक की उक्ति है; तीन प्रहर वियोगव्यथा में विताय चतुर्थ प्रहर में निज प्रियतमा को स्वप्न में देख ज्योंही चिबुक पै हाथ लेगया त्योंही सूर्योदय हुआ अतएव अग्रकार्य असमाप्तही रहा)