पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास.djvu/१४८

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का अवकाश न मिलै। इस कारण बङ्गाले की राह खुली छोड़ दी। हुमायूं का सामना करनेवाला तो कोई था ही नहीं वह बङ्गाले के मैदानों को पार करता हुआ सीधा गौड़ तक चला गया जो उस समय बङ्गाले की राजधानी था और वहां ठहर कर अपने भाई हन्दाल को लौटा दिया कि आगरे से कुछ और सेना ले आये।

९—अपने स्वभाव के अनुसार हुमायूं ने यहां भी एक बरस जलसे तमाशे में बिताया। मालिक की देखा देखी सर्दार और सेनापति भी सुख चैन में पड़ गए और इस बात को सब भूल गए कि हमारे पीछे शेरखां अपनी सेना लिये बैठा है। शेरखां नित्य चौकन्ना और तैयार बैठा रहता था। ज्यों ही जासूसों से समाचार मिला कि हुमायूं और उसके साथी सुस्ती में अपने दिन काट रहे हैं वह रोहतास गढ़ से निकला और बङ्गाल और बिहार के नाके बन्द कर दिये। उधर हन्दाल ने विश्वासघात किया। भाई की सहायता करनी तो दूर रही स्वयम् दिल्ली के सिंहासन पर बैठ कर राज का मालिक बन गया।

१०—अन्त में हुमायूं अपनी सेना के साथ बङ्गाले से चला। वर्षा ऋतु आरम्भ हो गई थी। जिधर देखो पानी ही पानी दिखाई देता था। सड़के कीचड़ के मारे दल दल हो रही थीं और उनपर चलना असम्भव था। हुमायूं के बहुत से साथियों को ज्वर आने लगा, बहुत से घोड़े मर गये। बहुत सा खाने पीने का सामान ख़राब हो गया। हुमायूं लौट कर धीरे धीरे उस तंग दर्रे पर पहुंचा जहां बङ्गाले से बिहार का रास्ता है। यह वह दर्रा है जो राजमहल की पहाड़ियों और गङ्गाजी के बीच में पड़ता है। शेरख़ां पहिले ही से यहां उपस्थित था। उसने दर्रे के सम्मुख गहरी गहरी खाइयां खोद रक्खी थीं, ऊंची ऊंची दीवारैं खड़ी कर रक्खी थीं और अफ़ग़ान सिपाहियों की एक अच्छी भीड़ साथ