दौड़ा और हिन्दुओं की एक बड़ी सेना को जो इस मन्दिर के बचाने के लिये उसके सामने आई थी मार कर भगा दिया। जब वह मन्दिर में घुसा तो पुजारियों ने डरते कांपते यह बिनती की कि आप हमारे देवता की मूर्ति को छोड़ दें तो हम आप को बहुतसा धन दें। महमूद ने न माना और बोला कि मैं मूर्ति तोड़ने आया हूं मूर्ति बेचने नहीं और इतना कहकर उसने अपनी लोहे की गदा इतने ज़ोर से मारी कि मूर्ति के टुकड़े टुकड़े हो गये।
८—यहां से अफ़ग़ानिस्तान लौट जाने के पीछे महमूद मर गया। यह आप भारत में न ठहरा पर एक सेनापति को पंजाब का हाकिम बना कर लाहौर में छोड़ गया। हिन्दू लोगों ने डेढ़ सौ बरस तक इस देश से मुसलमानों के निकालने का उपाय किया। पर महमूद के स्थानापन्न पठान लाहौर में जमे बैठे रहे और पंजाब से बढ़ते बढ़ते गङ्गा के मैदान में पहुंचे और वहां के बड़े बड़े नगर उन्होंने लूट लिये। इन बादशाहों की दो राजधानियां थीं। एक ग़ज़नी दूसरा लाहौर।
९—महमूद बड़ा बीर था और अपने समकालीन पठानों की तरह निर्दयी और दुष्ट न था, लड़ाई के बन्दियों को मारता न था। अफ़गानिस्तान के राज्य का प्रबन्ध उसने बहुत अच्छा किया। हिन्दुस्थान के धन से उसने ग़ज़नी नगर में बड़े बड़े महल और मकान बनवाये और उसकी शोभा बढ़ाई। बहुत से कवि और गुणी लोग दूर देशों से ग़ज़नी में आकर बसे। पर वह लोभी और कंजूस था। फ़िर्दौसी कवि के साथ जो उसने चाल चली वह बड़ी ही अनुचित थी। महमूद ने फ़िर्दौसी से शाहनामा रचने को कहा और एक शेर पीछे एक अशर्फी देने की प्रतिज्ञा की। तीस बरस कड़ा परिश्रम कर फ़िर्दौसी साठ हज़ार शेर लिख लाया।