पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/३७५

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हिन्दू और यूरोपीय सभ्यताकी तुलना ३३३ नियुक्तिमें और साक्षियोंके विश्वासपर सम्मति बनाने घाल. नका अधिक ध्यान रखपा जाता था। न्यायाधीशोंकी पुक्तिके लिये उत्तम आचारका होना आवश्यक था । लालची, चिारी, और नीच मनुष्योंको न्यायाधीश नही बनाया जा कता था। जज बननेके लिये केवल परीक्षा पास करना पर्याप्त या। इस सम्बन्धमें हिन्दू-शास्त्रोंकी आशाएँ यहुत कड़ी थीं, कि न्यायाधीशोंके आचरण और निस्वार्थ न्यायपर प्रजाके त और कल्पाणका निर्भर था। दण्ड-नीतिक सम्बन्धमें गहरेज़ी कानून- जदारी कानून । का यह सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्तिको तक निरपराध समझना चाहिये जबतक कि, यह अपराधी द न हो जाय। नियम रूपसे एक निरपराधके दण्ड पा नेको अपेक्षा ६ अपराधियोंका छूट जाना अच्छा है। अंग- सिद्धान्तोंके अनुसार प्रजाको स्वतन्त्रता-फर्म, वचन और की स्वतन्त्रता-बहुत पवित्र है। यूरोपमें किसी अंशतक सिद्धान्तोंपर आचरण भी होता है, परन्तु भारतमें कर्म ठीक के विपरीत है। प्राचीन हिन्दू-सभ्यतामें भी हमें यही सिद्धान्त गोचर होते हैं। देखिये अध्यापक रिस डेविड्स अपनी तक, बुधिस्ट इण्डिया, में लिखते हैं कि उस समयके एक दू राज्यमें फौजदारी अदालतोंके छः दर्जे थे। इनमेंसे प्रत्येक पीको छोड़ या मुक्त कर सकता था। परन्तु दण्ड देनेका धेकार किसी एकको न था। दण्ड उस समय मिलता था छहों दर्जे मिलकर राजाकी निधी फौंसिलको रिपोर्ट फरते । कदाचित् फौजदारी न्यायका यह मानचित्र हिन्दू-कालमें त्रिन पाया जाता हो, परन् किसी राज्य विशेषतक परिमित फिर भी इससे यह अनुमान हो सकता है कि हिन्दू धर्म