1 हिन्दू और यूरोपाय सभ्यताकी तुलना ३५१ इसके विपरीत जो लोग इस देशमें आये उनको उन्होंने खूब सेवा और सम्मान किया और यदि उन्होंने यहां बसना चाहा तो उन्हें बसने दिया। हिन्दु-न्यायालय दूसरी जातियोंके लोगो के अधिकारों को विशेष रक्षा करते थे दूसरे दान-पुण्यके काम। दान-पुण्यके दूसरे कामों में भी प्राचीन हिन्दू-सभ्यता आधुनिक यूरोपीय सभ्यता- से पीछे न थी। हमको इल चातके असंख्य प्रमाण मिलते है कि हिन्दू लोग मन्दिर बनाना, मन्दिरोंके लिये स्थायी प्रबंध करना, धर्मशालायें बनाना, कृप, तथा सरोवर खुदवाना, सार्वजनिक वाटिकायें धनाना, सदावत चलाना, दरिद्राथम वनवाना, अनाथों और विधवाओंके पालन-पोषणका प्रबन्ध करना इत्यादि पुण्यके कार्यों और शिक्षा सम्बन्धो तया धार्मिक संस्थाओंके प्रतिष्ठित करने में विशेष रुचि प्रकट करते थे। दुर्भिक्षके दिनों में न केवल व्यक्तिगत दानसे अकाल-पीड़ितोंकी सहायताका प्रबंध किया जाता था, परन् महाराज अशोकके समयमें जो सरकारी नीति शास्ता (सेंसर ) नियत होते थे उनका विशेष रूपसे यह फर्तन था कि दखिों, अनाथो, विधवाओं और ऐसे परिवारोंके विषयमें राजाको सूचना दें जिनकी आयके साधन उनकी आव- श्यकताओंसे कम हों। इसका यह अर्थ है कि राज्य अपना कर्तव्य समझता था कि राष्ट्रमें कोई व्यक्ति जीवनकी आवश्यक- ताओं की कमीसे कर न पाये। अर्वाचीन सभ्यताने राज्योंकी इस जिम्मेदारीको अभीतक स्वीकार नहीं किया। इस प्रकारके दान-पुण्यके कार्यों के लिये प्रावीन हिन्दू-आर्य व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूपसे बहुतसे स्थायी दान प्रतिष्ठित करके ग्राम्य और नागरिक पंचायतों तथा समितियों के सिपुर्द कार देते थे और उनके स्थायी प्रवन्धका उत्तरदायित्व उनपर
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