३६२ भारतवपका इतिहास ओरसे है, अतः राजा ईश्वरका प्रतिनिधि है । जो कुछ वह आशा दे, चाहे वह उचित हो या अनुचित, विना किन्तु-परन्तु किये उसे मान लेना चाहिये । परन्तु दूसरे हिन्दू-शास्त्रोंके पढ़नेसे यह विदित होगा कि वैदिककालमें राजाको लोग निर्वाचित करते थे। अध्यापक मेकडानलने भी इस यातको माना है कि वैदिक- कालमें कुछ राजा निर्वाचन द्वारा नियत किये जाते थे और कुछ . परम्परासे होते थे। इस बातका अथर्ववेदके तीसरे सूक्तमें स्पष्ट रूपसे वर्णन है और इसके संकेत ऋग्वेदमें भी पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त वैदिक साहित्यको दृष्टि से प्रजा राजाको स्थायी यो अस्थायीरूपसे गद्दोसे उतार देनेका भी अधिकार रखती थी। हिन्दू-इतिहासमें इस प्रकारके पर्याप्त दृष्टान्त मिलते हैं जिनसे यह मालूम होता है कि प्रजाने इस अधिकारका प्रयोग बहुत बार किया । हिन्दुओंकी जो पुस्तकें राजनीतिक शास्त्रपर मिलती हैं उनसे भी इस विचारका समर्थन होता है। राजा और प्रजाके बीच समझौताके महावंशमें एक कथा आती है। उसमें लिखा है द्वारा राज्यका प्रारम्भ । कि जब लोगोंके अंदर व्यक्तिगत सम्पत्तिका या पारिवारिक स्वामित्वका भाव उत्पन्न हो गया, तब एक व्यक्तिने दूसरेके धन चुरा लिये। उस समय लोगोंने इकट होकर यह मन्त्रणा की कि इस कुप्रयन्धको दूर करने के लिये अच्छा हो कि हम अपने से कुछ शक्तिशाली, सुन्दर और योग्य पुरुषोंको अपना शासक नियत करें, ताकि वह दण्ड- नीतिसे लोगोंको पाप और अपराधसे अलग रख सके। अतएव उन्होंने एक मनुष्यको ये अधिकार दिये.और उसको अपने खेतों- का.रक्षक बनाया | उसकी इन सेवाओं के बदले में उन्होंने उसको अपने खेतोंको उपजकाः एक भाग देना, स्वीकार किया। इस .
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