पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१०५

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पश्चिमी लिपि. दानपत्र के अक्षरों में से अधिकतर के सिर ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति वैद्यदेव के उपर्युक्त दानपत्र के अक्षरों के सिरों से हुई हो. वर्तमान उडिया लिपि के अक्षरों के सिर पुरुषोत्तमदेव के दानपत्र के सिरों से अधिक घुमाववाले हैं और उनका अंतिम भाग अधिक नीचा होता है परंतु वे सिरे उक्त दानपत्र के अक्षरों के सिरों ही के विकसित रूप हैं. लिपिपत्र ३५ वें की मृल पंक्तियों का अक्षरांतर- श्री जय दुर्गायै नमः । वौर श्रीगजपति गउडेभर नवकोटिकर्नाटकलवर्गेश्वर औपरुषोत्तमदेव महाराजाकर । पोते- श्वरभटकुदान शासन पटा । र ५ अक मेष दि १० सोमवार ग्रहण- ११--पश्चिमी लिपि ई स. को पांचवी में नवीं शताब्दी तक (लिपिपत्र ३६ स ४०) . पश्चिमी लिपि का प्रचार गुजरात, काठियावाड़, नामिक, खानदेश तथा मतारा जिला में, हैदराबाद राज्य के कुछ अंशों और कांकण आदि में ई. म की पांचवीं मे नवीं शनाब्दी तक रहा ( देग्वा, ऊपर पृष्ठ ४६ ). ई. म. की पांचवीं शताब्दी के प्रामपाम इसका कुछ कुछ प्रचार राजपू- ताना, मध्यभारत और मध्यप्रदेश में भी पाया जाता है ( देग्वा, ऊपर ए ६०, टिप्पण २,३,४). यह लिपि गुप्तों , बलभी के राजाओं', भड़ौच के गजरवंशियों , बादामी और गुजरात के चालुक्या, त्रैकूट- को, राष्ट्रकूटों. गुजरात के कलचुरियों आदि गजवंशों के कितने एक शिलालेग्वों या दानपत्रों में नथा साधारण पुरुषों के लेग्वों में मिलती है उत्तरी शैली की लिपियों के पड़ोस की लिपि होने से इसपर उनका प्रभाव पड़ा है दक्षिणी शैली की लिपियां में घ, प, फ, ष और म उनके पुराने रूपों के अनुसार ऊपर से खुले हुए होते हैं (देग्यो, लिपिपत्र २६-५% ): 'ल' की बड़ी लकीर बहुधा ऊपर की तरफ़ से बाई . • ये मल पंक्कियां पुरुषोत्तमदेव के दानपत्र से है. सी. गु. लख संख्या ५, १४, १८ पं: जि. ३. पृ ३२०-२ जि. पृ. १६०.६६. जि ११, पृ.८२-५ १०६-१७. १७८-८० ा म ईई स २६०२- ३. पृ २३५.८ पला गुलेख संख्या ३८-३६ एँ; जि ७, पृ. ६६.८६ जि ८, पृ ३०१ ३ जि ६. पृ २३८-६ अादि. ४ ए. जि पृ.२०-२१. जि ५. पृ ३६-४१ : जि ५, पृ ११३-४ . जि. १३, पृ. ७७६; आदि ५ एँ :जि ३, पृ ५१.२. ई. जि ७, पृ १६३-४ जि . पृ. ४५-६ जि.पृ १२४ जि १६. पृ. ३०६- १० जबंब. प सोजि १६, पृ.-३, आदि. जि. १० पृ ५३ जि. ११, २२०-१ ज.बंब ए सजि १६, पृ ३४७ केव टेंपल्स ऑफ वेस्टर्न इंडिया, पृ ५८, भादि. . .जि. ३, पृ५५-७ ई.एँ; जि. १२. पृ १५७-६२. जबंब ए. सो; जि. १६, पृ.१०६-११०: प्रादि • . जि. ६. पृ. २६७-६ जि. १०,१७४-७५: प्रावि.