पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१०९

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5 मध्यप्रदेशी सिपि. राजामों तथा कुछ कदयों के दानपत्रों या शिलालेखों में मिलती है. इस लिपि के दानपत्र अधिक और विस्तृत रूप में मिलते हैं, शिलालेख कम और बहुधा छोटे छोटे. इसके अचर लंबाई में अधिक और चौड़ाई में कम होते हैं, उनके सिर चौकुंटे या संदूक की प्राकृति के बहुधा भीतर से खाली, परंतु कमी कमी भरे हुए भी, मिलते हैं और अचरों की प्राकृति बहुधा समकोणवाली होती है (देखो, अपर पृ. ४३). इससे इस लिपि के अवर साधारण पाठक को विलक्षण प्रतीत होते हैं परंतु इन दो वानों को छोड़ कर देखा जाये तो इस लिपि में और पश्चिमी लिपि में बहुत कुछ समता है. इस लिपि पर भी पश्चिमी लिपि की नाई उत्तरी शैली का प्रभाव पड़ा है. लिपिपत्र ४२वां यह लिपिपत्र वाकाटकवंशी राजा प्रवरसेन(दूसरे) के दूदिमा सिवनी और चम्मक' के दानपत्रों से तप्यार किया गया है. दूदिना तथा सिवनी के दानपत्रों के अचरों के सिर चौकूटे और भीतर से ग्वाली हैं तथा अधिकतर अक्षर समकोणवाले हैं, परंतु चम्मक के दानपत्र के अक्षरों के चौकूटे सिर भीतर से भरे हुए हैं और समकोणवाले अक्षरों की संख्या कम है. दृदिया के दानपत्र से उदृत किये हुए अक्षरों के अंत में जो 'इ', 'ऊ और 'नौ' अचर दिये हैं वे उक्त दानपत्र से नहीं हैं. 'ऊ अजंटा की गुफा के लेखसंख्या ३ की पंक्ति १७ से' और 'मौ'महासु- देवराज के रायपुर के दानपत्र की १० वीं पंक्ति से लिया है. उक्त तीनों दानपत्रों में कोई प्रचलित संवत् नहीं दिया परंतु यह निश्चित है कि प्रवरसेन(दसरा) गुप्तवंशी राजा चंद्रगुप्त दूसरे ( देवगुस) की पुत्री प्रभावतीगुप्ता का पुत्र था और चंद्रगुप्त दूसरे के समय के लेख गुप्त संवत् ८२ से ११ (ई.स. ४०१-१२) तक के मिले हैं. ऐसी दशा में प्रवरसेन (दूसरे ) का ई.स. की पांचवीं शताब्दी के प्रारंभ के पास पास विद्यमान होना निश्चित है. लिपिपत्र ४१वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांनर- दृष्टम् प्रवरपुरात् अमिष्टोम(मा)प्तो-मोक्थ्यषोडश्यतिरो(रा)पवाज- पेयरहस्पतिसवसाद्यस्कचतुरश्वमेधयानिमः विष्णुरजसगो- पस्य सम्राट (जो वाकाटकानामहाराजश्रोप्रवरसेनस्य सूनोः सुनोः अत्यन्तस्वामिमहाभैरवभक्तस्य सभारसविवेशितशिलि- लिपिपत्र ४२ वां यह लिपिपल बालाघाट से मिले हुए वाकाटकवंशी राजा पृथिवीसेन(दूसरे) के, खरिभर से मिले हुए राजा महासुदेव" के और राजीम से मिले हुए राजा नीवरदेव के " दानपत्रों से तय्यार किया गया है. तीवरदेव के दानपत्र में इकी दो बिंदिनों के ऊपर की आड़ी लकीर में विलक्षण मोड़ डाला है. ग्वरिअर और राजीम के दानपत्रों का समय अनुमान से लगाया है क्योंकि उनका निमित समय स्थिर करने के लिये अब तक ठीक साधन उपलब्ध नहीं हुए. । एँ; जि ७, पृ १०४ ६ जि, पृ १७२-३ पली; गु., लेखसंख्या ८१. २५, जि २१. पू ३३ रा, ऍक जि ७, २००के पास का सेट. ३ एंजि३, पृ.२६०और २६१ के बीच के प्लेट । फ्ली; गु, मेट ३५ वां . फ्ली, गुमेट ३४ भा.स.के.जि.४, प्लेट ५७. • फ्ली; गुप्लेट २७ - घे मूल पंक्तियां प्रवरसेन (दूसरे ) के दूदिमा के दानपत्र से हैं. ६. '. जि., पृ २७० और २७१ के बीच के प्लेटों से १. ऍजि पृ. १७२ और १७३ के बीच के प्लेटो से. ॥ पली; गुप्लेट ४५ से. .