पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/११

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भूमिका. प्राचीन नगर, प्राचीन काल में पार्य जाति विद्या और सभ्यता में सर्वोच पद पा चुकी थी और एशिया खंड ही पार्यों की सभ्यता का मूल स्थान था जहाँसे बहुधा दुनिया भर में धर्म, विद्या और सभ्यता का प्रचार हुमा. एशिमा में भारत, ईरान और असीरिमावाले तथा भाफ्रिका में मिसरवाले पड़ी उन्नत दशा को पहुंचे थे, परंतु परिवर्तनशील समय किमी को सर्वदा एक दशा में नहीं रहने देता. भनेक राष्ट्रविप्लष होते होते ईरान, असीरिमा और मिमरवाले तो अपने प्राचीन साहित्य भादि के उत्तराधिकारी न रहे परंतु भारतवर्ष के भार्य लोगों ने वैसी ही अनेक भापसियां सहने पर भी अपनी प्राचीन सभ्यता के गौरवरूपी अपने प्राचीन साहित्य को बहुत कुछ बचा रक्खा और विद्या के संबंध में मारे भूमंडल के लोग थोड़े बहुत उनके ऋणी है. ऐसे प्राचीन गौरववाले भारतवर्ष का मुसलमानों के यहां आने के पहिले का शृंखलाबद्ध इतिहास, जिसे आधुनिक काल के विद्वान् वास्तविक इतिहास कह सकें, नहीं मिलता. भारतवर्ष बड़ा ही विस्तीर्ण देश है, जहां पर प्राचीन काल से ही एक ही राजा का राज्य नहीं रहा किंतु समय समय पर अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय और अस्त होता रहा; विदेशियों के अनेक आक्रमणों से प्राचीन नगर नष्ट होते और उनपर नये यसले गये और मुसलमानों के समय में तो राजपूताने के बड़े अंश को छोड़ कर भारतवर्ष के बहुधा सब हिंदू राज्य मस्त हो गये इतना ही नहीं किंतु बहुत मंदिर, मठ आदि धर्मस्थान तथा प्राचीन पुस्तकालय नष्ट कर दिये गये. ऐसी दशा में इस विशाल देश के शृंग्वलाबद्ध प्राचीन इतिहास का मिलना सर्वथा असंभव है, परंतु यह निर्विवाद है कि यहां- वाले इतिहास विद्या के प्रेमी अवश्य थे और समय समय पर इतिहास से संबंध रखनेवाले भनेक ग्रंथ यहां लिखे गये थे. वैदिक साहित्य मार्यों की प्राचीन दशा का विस्तृत हाल प्रकट करता है. रामायण में रघुवंश का और महाभारत में कुरुवंश का विस्तृत इतिहास एवं उस समय की इस देश की दशा तथा लोगों के प्राचार विचार आदि का वर्णन मिलता है. मत्स्य, वायु, विष्णु और भागवत आदि पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की प्राचीन काल से लगा कर भारत के युद्ध के पीछे की कई शताब्दियों तक की वंशावलियां, कितने एक राजाओं का कुछ कुछ वृत्तांत एवं नंद, मौर्य, शुंग, काण्व और मांध्रवंशी राजाओं की नामावलियां तथा प्रत्येक राजा के राजस्वकाल के वर्षों की संख्या तक मिलती है. आंधों के पीछे के समय में भी अनेक ऐतिहासिक पुस्तक लिग्वे गये थे जिनमें से पाणमहरचित 'हर्षचरित'; वाक्पतिराज का 'गउडवहो'; पनगुस(परिमल)प्रणात 'नवसाहसांकचरित'; बिल्हण का 'विक्रमांकदेवचरित'; संध्याकरनंदिरचित 'रामचरित'; कल्हण तथा जोनराज की 'राजतरंगिणी'; हेमचंद्ररचित 'याश्रयकान्य' तथा 'कुमारपालचरित'; जपानक (जयरथ) का 'पृथ्वीराजविजय'; सोमेश्वर की 'कीर्तिकौमुदी'; परिसिंहरचित 'सुकृतसंकीर्तन'; जयसिंहसूरि का 'हमीरमदमदन'; मेरुतुंग का प्रबंधचिंतामणि'; राजशेखर का 'चतुविशतिप्रबंध'; चंद्र- प्रभसूरिभणीत प्रभावकचरित'; गंगादेवीरचित 'कंपरायचरितम्'(मधुराविजयम्); जयसिंहमूरि, चारि- वसुंदरगणि तथा जिनमंडनोपाध्याय के भिन्न भिन्न तीन 'कुमारपालचरित'; जिनहर्षगणि का वस्तुपाल- चरित'; मयचंद्रसूरिप्रणीत 'हमीरमहाकाव्य'; भामंदभ का 'बल्लालचरित'; गंगाधर पंडितरचित 'मंडलीकमहाकाव्य'; राजनाथ का 'मच्युतराजाभ्युदयकाव्य'; तथा 'मूषकवंशम्' मादि कई ग्रंथ अब तक मिल चुके हैं और नये मिलते जाते हैं. इनके प्रतिरक्त हिंदी, गुजराती और तामिळ मादि भाषाओं में लिखे हुए कई ऐतिहासिक पुस्तक मिले हैं, परंतु ये सब पुस्तक भी इस विस्तीर्ण देश पर राज्य करनेवाले भनेक राजवंशों में से थोड़ेसों का कुछ इतिहास प्रकट करते हैं इनमें बड़ी श्रुटि यह है कि बहुधा