पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/११६

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प्राचीनलिपिमाला. . मिलता है और इसी क्रमशः परिवर्तन होते होते वर्तमान ग्रंथ लिपि बनी (देखो, ऊपर पृ. ४-४४ ). मद्रास हाते के जिन हिस्सों में तामिळ लिपि का, जिसमें वर्षों की अपूर्णता के कारण संस्कृत ग्रंथ लिखे नहीं जा सकते, प्रचार है वहां पर संस्कृत ग्रंथ इसी लिपि में लिखे जाते हैं इसीसे इसका नाम 'ग्रंथ लिपि' (संस्कृत ग्रंथों की लिपि ) पड़ा हो यह पल्लव, पांज्य, और चोल राजाओं, तथा चोल- वंशियों का राज्य छीननेवाले वेंगी के पूर्वी चालुक्य राजा राजेंद्रचोड़ के वंशजों, गंगावंशियों, बाणवंशियों, विजयनगर के यादवों भादि के शिलालेश्वों या ताम्रपत्रों में मिलती है यह लिपि प्रारंभ में तेलुगु- कनड़ी से बहुत कुछ मिलती हुई थी (लिपिपत्र ५२ में दी हुई राजा राजसिंह के कांचीपुरम् के लेख की लिपि को लिपिपत्र ४३ में दी हुई पल्लववंशी विष्णुगोपवर्मन् के उरुपबुल्लि के दानपत्र की लिपि से मिला कर देखो), परंतु पीछे से चलती कलम से लिस्वने तथा खड़ी और भाड़ी लकीरों को वक्र या खमदार रूप देने (देखो, ऊपर पृ. ८०) और कहीं कहीं उनके प्रारंभ, बीच या अंन में ग्रंथि लगाने के कारण इसके रूपों में विलक्षणता पाती गई जिससे वर्तमान ग्रंथ लिपि वर्तमान नेलुगु और कनड़ी लिपियों से बिलकुल भिन्न हो गई. लिपिपत्र ५२ वां. , यह लिपिपत्र पल्लववंशी राजा नरसिंहवर्मन् के समय के मामल्लपुरम के छोटे छोटे ६ लेखों', उसी वंश के राजा राजसिंह के समय के कांचीपुरम् के कैलासनाथ नामक मंदिर के शिलालेख' तथा कूरम से मिल हुए उसी वंश के राजा परमेश्वरवर्मन् के दानपत्र से तय्यार किया गया है नरसिंह- वर्मन् के लेखों में 'अ' के तीन रूप मिलते हैं. राजा राजसिंह के समय के कांचीपुरम् के लेग्व के 'मकी बाई तरफ के गोलाईदार अंश कोमल अक्षर मे मिला देने से भ में ग्रंथि बन गई है. के उक्त तीन रूपों में से दसरा मुख्य है और उसीको त्वरा से लिखने से पहिला और तीसरा रूप बना है जिनमें ग्रंथि मध्य में लगाई है. विसर्ग के स्थानापन्न दोनों माड़ी लकीरों को एक बड़ी लकीर से जोड़ दिया है. राजा राजसिंह के समय के कांचीपुरम के लेस्व के लिम्बनेवाले ने अपनी लेखनकला की निपुणता का खुष परिचय दिया है. 'अ' की बड़ी लकीर को दाहिनी ओर घुमा कर सिर तक ऊपर बढ़ा दिया है, 'श्रा' की मात्रा की बड़ी रेन्वा को सुंदर बनाने के लिये उसमें विलक्षण घुमाव डाला है (देखो, टा, पा, मा, ळा) परमेश्वरवर्मन् के करम के दानपत्र की लिपि त्वरा से लिखी हुई है उसमें 'एऔर 'ज' के नीचे के भाग में ग्रंथि भी लगी है और अनुस्वार को अचर के ऊपर नहीं किंतु आगे धरा है लिपिपत्र ५२वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- नरसिंहवर्मण: स्वयमिव भगवतो सपतिरूपावती- सास्य नरसिंहस्य मुहरजितचोळ (ल)केरळ(लकळाल)भपाण्या- स्य सहसबाहोरिव समरशनिविसहसबाहु- कर्मणः परियळमणिमंगलशरमारप्रभृतिरणविदरिश(रिर्श)- । ए.ई. लि. १०, पृ. ६ के पास का वोट, लेख संख्या २.१० स... जि.२, माग ३, पोट । .सा.जि. २. भाग ३, पोट ११.२ • बेमन पंक्तियां क्रम के दानपत्र से हैं.