पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३७

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अंक बतखाने का प्रचार बना हुआ है; परंतु उनके देखने से पाया जाता है कि उनके लेखक सर्वथा प्राचीन क्रम को भूले हुए थे और 'मक्षिकास्थाने मक्षिका' की नाई केवल प्राचीन पुस्तकों के अनु- सार पत्रांक लगा देते थे. शिलालेख और दानपत्रों में ई.स. की छठी शताब्दी के अंत के पास पास तक तो केवल प्राचीन क्रम से ही अंक लिखे मिलते हैं. पहिले पहिल गूर्जरवंशी किसी राजा के ताम्रपत्र के दूसरे पत्रे में, जो [कलचुरि] संवत् ३४६ (ई स. ५६५ ) का है, नवीन शैली से अंक दिये हुए मिलते हैं अर्थात् उममें क्रमशः ३.४ और ६ के अंक है. उक्त संवत के पीछे कहीं प्राचीन शैली से और कहीं नवीन शैली से अंक लिम्व जाने लगे और १० वीं शताब्दी के मध्य तक प्राचीन शैली का प्रचार कुछ कुछ रहा; फिर तो उठ ही गया और नवीन शैली से ही अंक लिखे जाने लगे. उसके पीछे का केवल एक ही लेख एसा मिला है, जो नेपाल के मानदेव के समय का [ नेवार ] सं. २५६ ( ई. स. ११३६ ) का है और जिसमें अंक प्राचीन शैली से दिये हैं.. भारतवर्ष में अंकों की यह प्राचीन शैली कर मे प्रचलित हुई इसका पता नहीं चलता परंतु अशोक के सिद्धापुर, सहस्राम और रूपनाथ के लेग्चों में इस शैली के २००, ५० और ६ के अंक मिलते हैं जिनमें से २०० का अंक तीनों लेग्वों में बिलकुल ही भिन्न प्रकार का है और ५० तथा ६ के दो दो प्रकार के रूप मिलते हैं. २०० के भिन्न भिन्न तीन रूपों में यही कहा जा सकता है कि ई. स पूर्व की नीमरी शताब्दी में तो अंकों की यह शैली कोई नवीन घात नहीं किंतु सुदीर्घ काल से चली आती ग्रही होगी यदि ऐसा न होता तो अशोक के लग्वा में २०० के अंक के एक दूसरे से बिलकुल ही भिन्न नीन रूप सर्वथा न मिलते अशोक मे पूर्व उक्त अंकों के चिक कैमे थे और किन किन परिवर्तनों के बाद वे उन रूपों में परिणत हुए इस विषय में कहने के लिये अब तक कोई साधन उपलब्ध नहीं हुआ. कई विद्वानों ने जैसे ब्रामी अक्षरों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न भिन्न कल्पनाएं की हैं वैसे ही इन प्राचीन शैली के अंकों की उत्पत्ति के विषय में भी की हैं जिनका सारांश नीचे लिखा जाता है- प्रथम ई.स. १८३८ में जेम्स प्रिन्सेप ने यह अनुमान किया कि ये अंक उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षर हैं, जिसको वोप्के भादि कितने एक यूरोपिअन् विद्वानों ने स्वीकार भी किया. ' यद्यपि शिलालेखों और दानपत्रों में प्राचीन शैली के अंकों का प्रचार १०वीं शताब्दी के मध्य तक कुछ न कुछ पाया जाता है तो भी ताम्रपत्रों के लग्वक स की आठवी शताब्दी से ही उस शैली के अंकों के लिखने में गलतियां करने लग गये थे बलभी के गजा शीलादिस्य ( छठे ) के गुप्त में ४४१ के दानपत्र में १०० के साथ जुड़नेवाले ४ के अंक के स्थान मै ४० का अंक जोड़ दिया है (जि. ६ पृ. १६ के पास का सेट), और पूर्वी गंगावंशी राजा देवेंद्रवर्मन के गांगेय सं १८३ के दानपत्र में ८० के स्थान पर का और ३ के स्थान पर ३० का चिहन ('लो', 'ल' का धमीट रूप) लिखा है और २०के लिये के भाग बिंदी लगा कर एक ही दानपत्र में प्राचीन और नवीन शली का मिश्रण भी कर दिखाया है (जि. ३, पृ १३३ के पास का सेट). १. नामिळ लिपि में अब तक अंक प्राम शली से ही लिखे जाते हैं, नवीन शैली के अंकों का प्रचार अब होने लगा। थोड़े समय पूर्व के छपे हुए पुस्तकों में पत्रांक प्राचीन शैली से ही दिये हुए मिलते है परंतु अब नवीन शैली से देने लगे हैं. तामिळ अंकों के लिये देखो, लिपिपत्र ८१ मे शामिळ लिपि. .: पृ८१. .. अशोक के लेखों में मिलनेवाले २०० के अंक के भिन्न भिन्न ३ चिहनों के लिये देखो लिपिपत्र ७४ का पूर्वार्थक चिदनों में से दूसरा सहसाम के लेख से है करीव ८०० वर्ष पीछे उसीका किंचित् बदला हुमा रूप फिर मथुरा से मिली गई गुप्त सं. २३० (ई.स ५४६) की एक बौद्ध मूर्ति के नीचे के लेख (मी; गु., मेट४० D) में मिलता है। बीच में कहीं नहीं मिलता. कभी कभी लेखकों को अक्षरों या अंकों के प्राचीन बिहनों की स्मृति रहने का यह अद्भुत उदाहरण है.