प्राचीनसिपिमांबा. मिसर और भारत दोनों के प्राचीन अंकों में १००० तक के लिये २० चिक होने से केवल दो ही अनुमान हो सकते हैं कि या तो एक ने दूसरे का क्रम अपनाया हो अथवा दोनों ने अपने अपने अंक स्वतंत्र निर्माण किये हों. यदि पहिला अनुमान ठीक है तो यही मानना पड़ेगा कि भारतवासियों ने हिएरेटिक या डिमोटिक क्रम से अपना अंकक्रम नहीं लिया क्योंकि जैसे भारतीय अंकों में १ से ३ तक के लिये प्रारंभ में क्रमशः १ से ३ आड़ी ( एक दूसरी से विलग ) लकीरें थीं वैसे ही हिएरोग्लिफिक अंकों में १ मे 8 तक के लिये क्रमशः १ से ६ ( एक दूसरी से विलग) खड़ी लकीरें थीं पीछे से भारत की उन अंकसूचक लकीरों में वक्रता आकर २ और ३ की लकीरें एक दूसरी से मिल गई जिससे उनका एक एक संमिलित चिक बन कर नागरी के २ और : के अंक बन गये भरयों ने ई स. कीवी शताब्दी में भारत के अंक ग्रहण किये तो ये अंक ठीक नागरी ( संमिलित ) रूप में ही लिये इसी प्रकार हिएरोग्लिफिक अंकों की २ से ४ तक की खड़ी लकीरें पीछे से परस्पर मिल कर २, ३ और ४ के लिये नये ( मिलवां ) रूप बन गये, जो हिएरेटिक और उनसे निकले हुए डेमोटिक अंकों में मिलते हैं. यदि भारतवासियों ने अपने अंक हिएरेटिक या डिमोटिक से लिये होते तो उन- में २ और ३ के लिये एक दूसरी से विलग २ और ३ आड़ी लकीरें न होतीं किंतु उनके लिये एक एक संमिलित चिक ही होता. परंतु ऐसा न होना यही सिद्ध करता है कि भारतवासियों ने मिसरवालों से अपना अंकक्रम सर्वथा नहीं लिया. अतएव संभव है कि मिमरवालों ने भारत के अंकक्रम को अपनाया हो; और उनके २, ३, ४,७,८,६, २०, ३०,४०, ५०, ६०,७०, ८० और १० के अंकों को बाई तरफ से प्रारंभ कर दाहिनी भोर समाप्त करने की रीति भी, जो उनकी लेखनशैली के बिलकुल विपरीत है, इसी अनुमान को पुष्ट करती है. दूसरी बात यह भी है कि डेमोटिक लिपि और उसके अंकों की प्राचीनता का पता मिसर के २५ वें राजवंश के समय अर्थात् ई. स. पूर्व ७१५ से १५६ से पहिले नहीं चलता. मिसरवालों ने अपने भई हिएरोग्लिफि अंकक्रम को कब, कैसे और किन साधनों से हिएरेटिक क्रम में पलटा इसका भी कोई पता नहीं चलता, परंतु हिएरेटिक और डिमोटिक अंकों में विशेष अंतर न होना यही बतलाता है कि उनकी उत्पत्ति के बीच के ममय का अंतर अधिक नहीं होगा. अशोक के समय अर्थात् ई स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में २०० के अंक के एक दूसरे से बिलकुल भिन्न ३ रूपों का मिलना यही प्रकट करता है कि ये अंक सुदीर्घकाल से चले आते होंगे. ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि प्राचीन शैली के भारतीय अंक भारतीय भायों के स्वतंत्र निर्माण किये हुए हैं. पृष्ठ ११३ पर अंकों का एक नकशा दिया गया है जिसमें हिएरोग्लिफिक, फिनिशिमन्. हिएरेटि . और डेमोटिक अंकों के साथ अशोक के लेग्वों, नानाघाट के लेख, एवं कुशनवंशियों के तथा क्षत्रपों और आंधों के लेखों में मिलनेवाले भारतीय प्राचीन शैली के अंक भी दिये हैं उनका परस्पर मिलान करने से पाठकों को विदित हो जायगा कि हिएरोग्लिफिक मादि विदेशी अंकों के साथ भारतीय अंकों की कहां तक समानता है. . इम नकश में । खड़ी पंक्तियां बनाई गई हैं. जिनम म पहिली पंक्ति में वर्तमान नागरी के अंक दिये है, दूमरी पंक्ति में मिमर के हिरगग्लिाफक अंक (ए नि, जि ७, पृ १२५): तीसरी में फिनिशिअन अंक (ए ब्रि. जि. १७. पृ ६२५) चौथा में हिपटिक अंक ( १ से ३०० तक ए वि. ज १७. पृ ६२५ से और ४०० से ४००० नक बू. म. संख्या , संट ३) पाचवी में डेमोाटक अंक (यू. ई. समक्या ३.ट ३) छठी में अशोक के लेवा में मिलनवाल अंक (लिपिपत्र ७१, ७२, ७४ ) : मानीं मैं नानाघाट के लेख के अंक ( लिपिपत्र ७१. ७२. ७४. ७५) : आठवी मै कुशनवंशियों के लेखा में मिलन वाले अंक । लापपत्र ७१. ७२ ), और नवा में क्षत्रपों तथा आंध्रा क नाविक प्रादि के लखो से अंक उद्धृत किये गये है (लिपिपत्र ७०, ७२, ७. ७५'
पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१४२
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