पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१८३

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लेखनसामग्री. के लिये पीपल की लाख को, जो अन्य वृक्षों की लाच से उत्तम समझी जाती है, पीस कर मिट्टी की इंडिया में रक्खे हुए जल में डाल कर उसे भाग पर चढ़ाते हैं. फिर उसमें मुहागा और लोध पीस कर सलते हैं. उबलते उबलते जब लाख का रस पानी में यहां तक मिल जाता है कि कागज़ पर उससे गहरी लाल लकीर बनने लगती है तब उसे उतार कर छान लेते हैं. उसको मलता (मलतक) कहते हैं. फिर तिलों के तेल के दीपक के कजल को महीन कपड़े की पोटली में रम्ब कर मलते में उसे फिराने जाते हैं जब तक कि उससे सुंदर काले अदर बनने न लग जावें. फिर उसको दवात (मसीभाजन ) में भर लेते हैं. राजपूताने के पुस्तकलेखक अब भी इसी तरह पक्की स्याही बनात संभव है कि ताड़पत्र के पुस्तक भी पहिले ऐसी ही स्याही से जिग्वे जाते हों कची स्याही कजल, कस्था, वीजायोर और गोंद को मिला कर बनाई जाती है परंतु पत्र पर जल गिरने से स्याही फैल जाती है और चौमासे में पत्रे परस्पर चिपक जाते हैं इस लिये उस का उपयोग पुस्तक लिखने में नहीं किया जाता. भूर्जपत्र ( भोजपत्र ) पर लिखने की स्याही पादाम के छिलकों के कोयलों को गोमूत्र में उबाल कर बनाई जाती थी. भूर्जपत्र उष्ण हवा में जल्दी खराब हो जाते हैं परंतु जल में पड़े रहने से वे बिलकुल नहीं बिगड़ते इस लिये कश्मीरवाले जब मैले भूर्जपत्र के पुस्तकों को साफ करना चाहते हैं तब उनको जल में डाल देते हैं जिससे पत्रों एवं अक्षरों पर का मैल निकल कर वे फिर स्वच्छ हो जाते हैं और न स्याही हलकी पड़ती है और न फैलती है. पूर्जपत्र पर लिग्वे हुए पुस्तकों में कहीं अक्षर मादि भस्पष्ट हों तो ऐसा करने से वे भी स्पष्ट दीग्वने लग जाते हैं: काली स्याही मे लिम्वे हुए मय मे पुराने अन्नर ई. म पूर्व की तीसरी शताब्दी तक के मिले हैं। मृला की कश्मीर आदि के पुस्तकों की रिपोर्ट, पृ ३० द्वितीय गजतरंगिणी काका जानगज अपने ही पक मुकदमे के विषय में लिखता है कि [ मेरे दादा लोलराम ने किसी कारण मे अपनी दम प्रस्थ भूमि में में एक प्रस्थ भूमि किमी की बची और अपने नानगज अादि यालक पुत्रो को यह कह कर उमी घर्ष यह मर गया. नानगज आदि को असमर्थ दग्व कर भूमि स्वर्गदनेवाल एक के बदले जबर्दस्ती से दमी प्रस्थ भोगते रहे और उसके लिये उन्होंने यह जाल बना लिया कि विक्रयपत्र । वैनाम । में लिखे हुए भूषस्थमेक विक्रीनं' में म' के पूर्व खारूप से लगनवाली ए की मात्रा' को 'द और 'म' को श बना दिया, जिसस विक यपत्र में भूप्रस्थमेक' का भूप्रस्थदशक' हो गया. मने यह मामला उस गजा। जैनोलामाहान, ज़ेन-उल-प्रावदीन ) की राजसभा में पेश किया तो गजा न भूर्जपत्र पर लिख्ने हुए विक्रयपत्र को मंगवा कर पढ़ा और उसे पानी में डाल दिया तो नय अक्षः धुल गय और पुगने ही रह गये जिससे भूप्रस्थमेक ही निकल पाया इस [न्याय ] से जा भीति, मुझको भूमि, जाल करनवालों को अद्भत दंड, प्रजा को सुख और दुष्टों को भय मिला । जोनगजकृत राजतना दल.. F०२५-३७) समये यह पाया जाता है कि या तो कश्मीग्वाले तीन पीढ़ा में ही पकी म्याई बनाने की विधि भूल गये थे, या भूजपत्र पर की स्याही जितनी पुगनी हो उतने ही अक्षा रद हो जाते या अधिक संभव है कि पंडित लालरान की पुस्तक लिखने की स्याही. जिसस विषयपत्र लिखा गया था, पक्की थी और दुर्ग म्याही, जिमसे जान किया गया, कमी थी .. सांची के एक स्तूप में से पत्थर के दो गोल डिग्य मिल हैं जिनमें सारिपुत्र भोर महामोगलान की हड्डियां निकली एक रिम्बे के ढकन पर 'मारिपुतस' खुदा है और भीतर उसके नाम का पहिला अक्षर मा' स्याही से लिया हुआ है. दूसर .

  • शारदा (कश्मीरी ) एवं अन्य प्राचीन लिपियों में पहिल 'ए' की मात्रा का चिज छोटी या बड़ी खड़ी लकीर

भी था जो म्यंजन के पहिले लगाया जाता था ( देखा, खिपिपत्र २८ में 'श' २८ मे दे' ३० में दिये हुए अरिगांव के लेख +कश्मीरी लिपि में 'म' और 'श' में इतना ही अंतर है कि 'म'के ऊपर सिर की लकीर नहीं लगती और 'श' केलगती है (देखो, लिपिपत्र १), बाकी कोई भेर नहीं है.