प्राचीनलिपिमाला के २५ वर्ष पूरे होने पर' ( २६ वें वर्ष मे ) मानते हैं परंतु पुराण तथा ज्योतिष के ग्रंथों में इस का प्रचार कलियुग के पहिले से होना माना गया है. (अ). 'राजतरंगिणी' में कल्हण पंडिन लिग्वता है कि इस समय लौकिक [ संवत् ] के २४ वें ( वर्तमान ) वर्ष में शक मंवत् के १०७० वर्ष बीत चुके हैं.' इस हिसाब से वर्तमान" लौकिक संवत् और गत शक संवत् के बीच का अंतर (१०७०-२४= ) १०४६-४६ है. अर्थात् शताब्दी के अंकरहित सप्तर्षि मंवत् में ४६ जोड़ने से शताब्दीरहित शक (गत), ८१ जोड़ने मे चैवादि विकम ( गत ), २५ जोड़ने मे कलियुग (गर) और २४ या २५ जोड़ने से ई. स. (वर्तमान) वाता है. (भा). चंबा से मिल हुए एक लग्व में विक्रम संवत् (गन) १७१७, शक संवत् १५८२ गत ) और शास्त्र संवत् ३६ वैशाग्व वति (वदि) १३ वुधवार लिया है. इससे भी वर्तमान शास्त्र संवत् और [ गत ] विक्रम संवत् ( १७१७-३६- १६८१-८१ ) तथा शक संवत् (१५८२-३६ - १५४६-४६) के बीच का अंतर ऊपर लिखे अनुसार ही आता है. पूना के दक्षिण कॉलेज के पुस्तकालय में शारदा (कश्मीरी) लिपि का 'काशि- है जिसमें गत विक्रम संवत १७१७ और सप्तर्षि संवत् ३६ पौप वति ( वदि) कावृत्ति पुस्तक । कलगते: मायकत्र(२५)वप. समर्षित्रयात्रिय प्रयाना । नाक ह मवन्मपत्रिकाया गर्षिमान प्रदान मन ।। ( डॉ अलर की कश्मीर की रिपोर्ट. पृ ६०) का • लौकिकाब्दे चतविगे शककालस्य भाग्रतम । समन्यायापक यान सम्म पग्विन्मरा' ( गजतर्गगणी, तरंग . शोक २ ) ४. सप्तर्षि संवत् के वर्ष वर्तमान और कलियुग, विक्रम तथा शक संवतो के वर्ष पंचांगों में गत निग्य रहने है ना८१२ एप्रिल ई म १९४८ को जो चत्रादि विक्रम मवन १६७५ और शक संवत १८४० प्रयश हुअा उसको लाग वामान मानते है. परंतु ज्योतिष के हिसाब से वह गत है, न कि वर्तमान मद्राम इहात के दक्षिणी विभाग में अबतक शक संवत् के वर्तमान वर्ष लिखे जान है ता वहां का वर्ष बंबई उहान नथा उत्तरी भारतवर्ष के पंचागों के शक संवत् मे एक वर्ष प्रांग रहता है. शुदि' ( सुदि । पार यदि या यदि का अर्थ शुक्लयत और बहल ( कृष्ण । पक्ष माना जाता है परंतु वास्नय में इन शब्ना का अर्थ 'शुक्लपक्ष का दिन और बहल ( कृष्ण ) पक्ष का दिन है ये स्वयं शब्द नहीं है कि दो दो शब्दों के संक्षिप्त रूपा के संकत मात्र है जिनका मिला कर लिखने में ही उनकी शन्द में गणना हो गई है। प्राचीन लखा में संवत्मर (संवत् । ऋतु. पत और दिन या तिथि ये सब कभी कभी मतपम भी निव जाते थे जैस मयत्सर के सनम रूप संवन् . मंव, मं श्रादि मिलत है (देखो. ऊपर पृ १५६ टि.) वैसे ही ग्रामः (प्राकृत में गिह्माण । का संक्षिप्तका 'ग्री'. या 'गृ'और 'गि' ( प्राकृत लखो में) 'वर्षा का 'व', 'हमन्न है बहल पत' या बहुल' (कृषण ) का व शुक्लपक्ष' या 'शुक' का 'शु' 'दिवस' का 'दि'ओर निधि' का ति मिलता है बहुल' और 'दिव' के संक्षिम रूप 'ब' और दि' को मिला कर लिखने से 'बदि' और उसमे वदि । वांग्क्यम ) शब्द बन गया, पं.स है। शुक्र के शु' और दिवस के 'दि को साथ लिखने में 'शुदि और उससे 'मुदि ' ( श' के स्थान में ‘स लिम्बने से) बन गया कश्मीरवाल दिवस' के स्थान में तिथि' शब्द का प्रयोग करने रह जिससे उनके यहां बहुधा 'शुति' और 'पति' शम्न मिलन है देहली के अशोक के तंभ पर अजमेर के चाहान गजा धीमलदेव (विग्रहराज । के तीन लम्ब युटे हुए हैं जिनमें से दो संवन १२२० वैशाम्ब शुदि १५ के है उन दोनो में शुनि ग्वदा है । संवत् १२२० बैशाखशुति १५ ई ए, जि. १६, पृ०१७-१८ । व्याकरण के पिछले श्राचाया ने शुदि' और यदि (वदि) शमी की उत्पत्ति न जान कर ही उनकी अव्यया में गणना कर दी है शुदि 'या 'शुति और यदि' या बति' । वति । के पीछे 'तिथि शम्द ( श्रावणशुदि पंचम्यां तिथा ) लिखना भी अशुद्ध है क्योकि शुदि और 'यदि' में निथिसूचक 'दिवस' शब्द मजद है केवल उप- युक्त शब्दों के ही संक्षिम रूप लेखादि में मिलते हैं ऐसा ही नहीं किंतु अनेक दूमर शब्दों के भी संक्षिप्त रूप मिलने हैं, जैसे कि ठकुर' का 'ठ' 'महन्तम' का महं.', श्रेष्ठिन्' का '|'. 'मातीय' या सानि' का 'मा', 'उत्त' ( पुत्र का प्राकृत रूप ) का उ.' (पं. ई. जि ८,२१६-२२) आदि अनेक ऐसे मंक्षिम मपों के साथ कही कुंडल (०) लगाया मिलता है और कहीं नही भी " श्रीमन्नृपतिविक्रमादित्यसवत्मर १७१७ श्रीशालिवाहनशके १५८२ अंशास्त्रमवत्मरे ३६ वैशाप(ख)वदि वयोदश्या (७)वत्रामरे मंपर्कसंक्रान्तो ( ; जि २०, पृ. १५२ ).
पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१८८
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