१७६ प्राचीनलिपिमाला. पहिले यह संवत् नेपाल से काठियावाड़ तक चलता था. इसका अंतिम लेख बखमी (गुप्त ) संवत् ६४५ (ई. स. १२६४) का मिला है जिसके पीछे इसका प्रचार बिलकुल ही उठ गया. . ११-गांगेय संवत् कलिंगनगर (मुस्खलिंगं, मद्रास इहाने के गंजाम जिले में पाकिमेडी से २० मील पर ) के गंगावंशी राजाओं के कितने एक दानपत्रों में 'गांगेय संवत्' लिखा मिलता है. यह संवत् गंगावंश के किसी राजा ने चलाया होगा परंतु इसके चलानेवाले का कुछ भी पता नहीं चलता. गंगावाशयों के दानपत्रों में केवल संवत्. मास, पक्ष और तिथि ( या सौर दिन ) दिये हुए होने तथा वार किसी में न होने से इस संवत् के प्रारंभ का ठीक ठीक निश्चय नहीं हो सकता. मद्रास इहाने के गोदावरी ज़िले से मिले हुए महाराज प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र राजा पृथ्वीमूल के राज्यवर्ष (सन जुलुस ) २५वे के दानपत्र में लिग्वा है कि 'मैंने मितवर्मन के प्रिय पुत्र इंद्राधिराज की, जिसने अन्य राजाओं के साथ रह कर इंद्रभट्टारक को उम्खाड़ने में विजय पाकर विशुद्ध यश प्राप्त किया था, प्रार्थना से यिपाक नामक गांव ब्राह्मणों को दान किया ९. यदि उक्त दानपत्र का इंद्रभधारक उक्त नाम का वेंगी देश का पूर्वी चालुक्य (सोलंकी) राजा हो, जैसा कि डॉ. फ्लीट ने अनुमान किया है', तो उस घटना का समय ई. स. ६६३ होना चाहिये, क्यों कि उक्त मन् में बेंगीदेश के चालुक्य राजा जयसिंह का देहांत होने पर उसका छोटा भाई इंद्रभधारक उसका उत्तराधिकारी हुआ था" और केवल ७ दिन राज्य करने पाया था ऐसे ही यदि इंद्राधिराज को बंगीदेश के पड़ोस के कलिंग- नगर का गंगावंशी राजा इंद्रवर्मन् (राजसिंह ), जिसके दानपत्र [ गांगेय ] मंवत् ८७ और है। मिल हैं, अनुमान करें, जैसा कि डॉ. फ्लीट ने माना है', नो गांगेय मंवत् ८७ ई म. ६६ के लगभग होना चाहिये. परंतु इंद्रभट्टारक के साथ के युद्ध के समय तक इंद्राधिराज ने राज्य पाया हो , ५ । गाइगेयवम(बग)मबछ(मोरशतप्रयेकपञ्चास(ग) ( कलिग के गंगावंशी गजा मन्यवर्मदय के गांगेय संघन ३५१ के दान पत्र से ई ए, जि १४. पृ १२) गाइंगेयवइग(ग)प्रवर्धमानविजयराज्यमबछरमतातागा चतुरातरा ( सयसरशतानि तीगिा चतुरुत्तराणि) ( गंगावंशी महागज गजद्रवर्मन् के पुत्र अनंतवर्मदेव के गांगय संवन् ३०५ के दानपत्र मे . ई. जि ३, पृ १८) ज ए. सी बंब. जि १६, पृ ११६-१७ ए, जि १३. पृ १०० ४. गा.मो.प्राभाग, १.१४२. ईए, जि १३, पृ १०० + डॉ० यार्नेट ने ई म ५६० में गांगेय संवत् का चलना माना है ( या, घे इ. पृ.६५) पांनु उसके लिये काई प्रमाण नहीं दिया ऐसा मानने के लिय को प्रमाण अब तक न मिलने से मैंने डा यानंट को लिखा कि 'आपन ई. स. ५६० से गांगेय मंवत् का चलना जिम आधार पर माना है वह कृपा कर मुझ मूचिन कीजिये' इमके उत्तर में उक्त विद्वान् ने अपने ता० २ पप्रिल ई स १९१८ के पत्र में लिखा कि 'एन्साइक्रोपारिमा प्रिटें. निका में छपे हुए डॉ फ्लीट के हिंदु क्रॉनॉलॉजी' (हिंदुओं की कालगणना ) नामक लेख के आधार पर यह लिखा गया है' डॉ० फ्लीट ने अपने उक्त लेख में लिखा है कि 'लेखों में जो भिन्न भिन्न वृत्तान्त मिलते हैं उनसे गंगावंशी राजाम्रो की उत्पत्ति पश्चिमी भारत में होना पाया जाता है और उनके संवत् का प्रारंभई स. ५६० से होना माना जा सकता है जब कि सत्याश्रय धुवराज-पंद्रवर्मन् न, जो गंगावंश के पहिले राजा राजसिंह-धर्म का पूर्वपुरुष और संभवतः उसका दादा था, चालुक्य राजा कीर्तिवर्मन् ( पहिले) के अधीन कोकण प्रदेश में शासन करना प्रारंभ किया था' (प. नि, जि १३, पृ.४६६; ११ वां संस्करण) डॉ. फ्लीट का उपर्युक्त कथन भी ठीक नहीं माना जा सकता क्यों कि उसका सारामाधार सत्याश्रय-ध्रुवराज-द्रवर्मन् के गोवा से मिले हुए दानपत्र पर ही है, जिसका सागंश यह है कि रेवती द्वीप में रहनेवाले चार जिलों के अधिपति (शासक) बप्पूवंशी सत्याश्रय-ध्रुवराज-द्रवमन् ने पृथ्वीवझम महाराज (चालुक्य राजा मंग- बीबर ) की भाषा से विजयराज्यसंवत्सर २० वें अर्थात् शककाल ५३२ माघ सुदि १५ के दिन खेटाहार देश का कारेमिका गांव शिवार्य को दान किया' (ज. प. सो बंद जि. १०, पृ. ३६५). प्रथम तो इस दानपत्र से सत्याभय-भुवराज-द्र- वर्मन् का गंगावंशी होना ही पाया नहीं जाता क्यो कि वह अपने को बप्पूरबंशी लिखता है और बप्पूरवंश तथा गंगावरा
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