१८३ भारतीय संवत् चलाया होगा जिसका नाम इसके साथ जुड़ा हुआ है और जैसा कि विजयशंकर गौरीशंकर ओझा का अनुमान है. मांगरोल की सोबडी वाव (बावडी) के लेख में विक्रम संवत् १२०२ और सिंह संवत् ३२ माश्विन वदि १३ मोम वार लिखा है। जिममे विक्रम संवत् और सिंह संवत् के बीच का अंतर १२०२-३२- ) ११७० भाता है. इस हिसाब से ई. स में से १११३-१४ घटाने से सिंह मंवत् होगा. चौलुक्य राजा भीमदेव (दूमरे ) के दानपत्र में वि सं १२६६ और सिंह संवत् १६ मार्गशिर शुदि १४ गुरु वार' लिग्वा है. इससे भी वि.सं. और मिह मंवत् के बीच का अंतर (१२६३-६६%) १९७० पाता है जैसा कि ऊपर बतलाया गया है. चौलुक्य अर्जुनदेव के समय के उपयुक्त वेरावल के ४ संवत्वाले शिलालेग्व में वि सं. १३२० और मिह मंवत् १५१ आषाढ कृष्णा १३. लिवा उक्त लेख का विक्रम संवत् १३० (१०) छोड़ कर कंवल ऊपर के ही अंक लिम्बे गये है ऐमा मानने का कारण यह है कि उक्त दानपत्र के छपन स १२ वर्ष पहिले डॉ वूलर ने मौलुक्य भीमदेव ( पहिले ) का वि.सं १०८६ कार्तिक शुदि १५ का दान स्त्र प्रसिद्ध किया (ई, जि. ६, पृ १९३४ । जिसमें उसका लेखक कायस्थ कांचन का पुत्र वटेश्वर और दूतक महामांधिविग्रहिक चंडशमा होना लिवा ह. डॉ.फ्लोट के प्रसिद्ध किये हुए संवत् १३वाले दानपत्र का लबक भी वही कायस्थ कांवन का पुत्र वटेश्वर और दूतक वही महासांधिविग्रहिक चंडशर्मा है इस लिये ये दोनों दानपत्र एक ही गजा के है यह निश्चित है ऐसी दशा मे डॉ कोटयाले दानपत्र का संवत् ६३ विक्रम संवत् १०६३ ही है न कि २०६२ या १२६३ शिलालेख और दानपत्रों के संवन में कभी कभी शताब्दियों के अंकों को छोड़ कर केवल करके ही अंक दिय दुर मिलन है जो विद्वानों को चार में डाल देने हे देवदत्त गमकृष्ण भंडारकर ने कोटा राज्य के अद नामक स्थान से मिल हुर महाराजाधिराज जोपह के लम्र में 'संवम् १४' खुदा टुक्रा होने म लिम्बा है कि यदि यह जयसिंह चौलुक्य सिद्धराज जर्यावह है और संवन् १४ उसका चलाया हुश्रा संबन [अथाम सिह संवन् , जिमको जयसिंह का चलाया दुआ मान लिया है ] है तो उमलब] का समय । स. ११२८ [वि. सं ११८५ ] पाना है. उक्त लेख का जसित कोई दूसरा जर्यावह हो सकता है परंतु व उत नाम के चालुक्य गजा म पहिले का नहीं हो सकता क्यों कि अक्षगपर में उक्त लेव का [ई स. की] १२ वा शनादो स पहिले का होना पाया नहीं जाना (प्री रि प्रा स व ई. ई. म १९०४-५. पृ ४८ । श्रम कलेव का संवत् भोलि मंवत् ४ न हां किंतु वि सं १३.५ होना चाहिये जिसमें भी शादिया के अंक छोड़ दिये गये हैं. वह लेख या नामालय के महाराजाधिराज जयसिंह दूर । जयतुगिदेव ) का. जिसके समय का गहटगढ़ का लाख वि सं १३१२ भाठाइ सुदि ७ (की. लि ना. पृ ३२. लेखसंख्या २२३ ) का मिला है या उसके छोटे भाई जयमन का, जिनका दान न वि मं१७ का मिला हे ( इ. जि ६, पृ १२०-२३). होना चाहिय कोटा भार झालावाड़ के इलाक पहिल मालव के परम के अधीन व जिनके लख ईस की १२वीं से १३ यो शब्दो के यहां पर मिलते हैं ऐसे तो उन विद्वान् ने जोधपुरगर साड़ी गांव से मिले हुए कटुगज के समय के एक लेख का मंचन ३१ पढ़ा है और उनको मिह संवत् मान कर विकन संवत् १२०० में कटुराज का नाडोल का राजा होना माना है तथा उक्र कटुगज को चाइमान ( चौहान) अश्वराज । प्राराराज ) का पुत्र कटुकराज बतलाया है (..जि ११. पृ ३४. ६६) वह लेख बहुत बिगड़ी हुई दशा में है इस लिये उपके शुद्ध पड़े जाने के विषय में हमे शंका ही है. यदि उसका संवत् वास्तव मे ३१ हो तो भी वह सिंह संवत् नहीं किंतु वि सं. १२३१ होना चाहिय क्यो कि नाडोल के चौहान के लेखों में कहीं सिंह संवा नहीं है. अश्वराज के पुत्र कटुकराज के सेवादी के दूसरे लेख म वि.सं १९७२ (ई; जि ११, पृ ३१-३२) ही लिखा है और वि.सं ११८६ से १२०२ तक के कई शिलालेख चौहान राजा रायपाल के समय के नाडोल और नारलाई से मिले हैं (हि. ११, पृ. ३४ ४३.) जिनसे पाया जाता है कि वि सं. १९८६ से १२०२ तक नाडोल का राजा रायपाल था न कि कटुराज ऐसी दशा में सिंह संवत् ३१ ( वि. म. १२०० ) में कटुगज का नाडोल का राजा होना संभव नहीं हो सकता. काठियावाद से संबंध न रखनवाले लेखों में सिंह संवत् मानने की चेष्टा करने के केवल उपयुक्त तीन ही उदाहरण अब तक मिले हैं जिनमें से एक में भी सिंह संवत् नहीं किंतु शनाणियों के अंकरहित वि सं.केही वर्ष है. १ श्रीमविक्रमसंवत् १२०२ नया श्रीसिंहसवत् ३२ प्राधिनदि १३ सोमे (भावनगर प्राचीन शोध संग्रह. भाग१, पृ. ७). श्रीविक्रमसवत् १२६६ वर्षे श्रीसिंहमा १६ वर्षे लौकि- मार्ग शुदि १४ गुरा- (ई.एँ, जि १८, पृ ११२ ) दखा. ऊपर पृ. १७५ और उसीका टिप्पण। v
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