पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/२१३

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भारतीय संवद अबुलफजल ने 'अकबरनामे' में तारीख इलाही के प्रसंग में लिखा है कि 'बंग (बंगाल)में लछमनसेन (लक्षमणसेन ) के राज्य के प्रारंभ से संवत् गिना जाता है. उस समय से अब तक ४६५ वर्ष हुए हैं. गुजरात और दक्षिण में शालिवाहन का संवत् है जिसके इम समय १५०६ और मालवा तथा देहली भादि में विक्रम का संवत् चलता है जिसके १६४१ वर्ष व्यतीत हुए हैं'. इससे शक संवत् और लक्ष्मणसेम संवत् के बीच का अंतर (१५०६-४६५= ) १०४१ भाता है. डॉ. राजेंद्रलाल मित्र को मिले हुए 'स्मृतितत्वामृत' मामक हस्तलिखित पुस्तक के अंत में 'ल.सं. ५०५ शाके १५४६' लिखा है. इससे भी शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर (१५४६-५०५= ) १०४१ पाता है जैसा कि अबुल्फ़ज़ल ने लिखा है नेपाल से मिले हुए 'नरपतिजयचर्या टीका' (स्वरोदयदीपिका) नामक हस्तलिखित पुस्तक के अंत में शाके १५३६ ल सं ४६४ लिखा है. यदि यह शक संवत् वर्तमान मामा जावे तो गत १५३५ होगा. इससे भी शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर अबुल्फजल के लिखे अनुसार ही भाता है उपर्युक्त तीनों प्रमाणों के माधार पर शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर १०४१ होता है, परंतु तिरहुत के राजा शिवसिंहदेव के दानपत्र में, जो जाली है, ल. सं. २९ श्रावण सुदि ७ गुरु वार लिख अंत में सन् ८०७ (१८०१) संवत् १४५५ शाके १९२१ लिखा है, जिससे शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर (१३२१-२६३ = ) १०२८ माता है. 'विजपत्रिका की तारीख १५ मार्च ई.स. १८६३ की संख्या में लिखा है कि 'बल्लालसेन के पीछे उनके बेटे लक्ष्मणसेन ने शक संवत् १०२८ में बंगाल के सिंहासन पर बैठ कर अपना नया शक समय उसकी अवस्था ६७ वर्ष होनी चाहिये ऐसी दशा में प्रारंभ किए हुए बड़ ग्रंथ का समाप्त करने की शक्ति उसमें न रही हो जिससे गजपूतों की गति के अनुसार बिस्तर में मरना पसंद न कर पूर्ण वृद्धावस्था में वीरता के साथ प्रात्मघात करना पसंद किया हो यह संभव है (गी: मो प्राइ भाग १, पृ १५. टिप्पण । उपर्युक्त दोनों ग्रंथों की रचना के श्लोकों से तो यही पाया जाता है कि ई स ११६६ के पीले तक बल्लालसेन जीवित था जिसके पीछे लक्ष्मणसेन ने स्वतंत्रतापूर्वक गज्य किया हो राखालदास बनर्जी ने लक्ष्मणसेन नामक लेख में (ज ए. सो.बंगा। ई. स १९१३, पृ २७१-६० ) यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि लक्ष्मणसेन का राज्य ई स. ११७० के पूर्व ही समाप्त हो चुका था, बस्तिबार खिलजी की नदिमा की चढ़ाई के समय वहां का राजा लक्ष्मणसेन न था. 'दानसागर' और 'अभुतसागर' की रचना के संवत् विषयक जो श्लोक मिलते है वे पिछले क्षेपक होने चाहिये, तथा अत्भुतसागर की रचना के संवत् संबंधी श्लोक तो केवल एक ही प्रति मे. जो डॉ रामकृष्ण गोपाल भंडारकर को मिली. मिलते हैं। उनके कथन का मुख्य आधार गया से मिले हुए दो शिलालेख हैं जिन में से पहिले के अंत में-'श्रीमल्लक्ष्मणसेनस्पातीतराज्ये स ५१ भाद्रदिने २६' (एँ, जि. १२. पृ २६) और दूसरे के अंत में-'श्रीमालक्ष्मगासेनदेवपादानामतीतराज्ये सं ७४ वैशावर्वाद १२ गुरो' ( . जि. १२. पृ ३०) लिखा है इनमें से पहिले लेख के प्रतीतराज्ये' पद से लक्ष्मणसेन संवत् ५१ ( स १९७० ) से पूर्व लक्षमणसेन का राज्य प्रतीत' (समाप्त ) हो खुका यह मान कर पस्तिमार खिलजी की पढ़ाई के समय अर्थात् ११६६ ( १२०० माना है ) में लक्ष्मणसेन का विद्यमान होना बतलाया है परंतु हम उक्त कथन से सहमत नहीं हो सकते क्यों कि महिला की चढ़ाई मिन्हाज उस्सिराज की जीवित- दशा की घटना थी, उक्त चढ़ाई के पीछे यह बंगाल में रहा था और बस्तिमार खिलजी के साथ रहने वालों से उसने वह हाल सुना था ऐसा वह लिखता है. ऐसे ही ‘दानसागर' और 'अद्भुतसागर' में मिलनेवाले उनकी रचना के समय संबंधी लोकों को क्षेपक नहीं कह सकते अद्भुतसागर की एक ही प्रति में वे श्लोक मिलते हैं ऐसा ही नहीं किंतु राजपूताने में उसकी तीन प्रति देखने में माई उन सब में श्लोक है ऐसी दशा में बल्लालसेन का शक संवत् १०६१ (ई.स. १९६६) के पीछे तक जीवित रहना पाया जाता है गया के लेखों के 'अतीतराज्ये सं' को 'अतीतराज्यसं' (जैसा कि राबालदास बेनर्जी के जल लेख में छपा है, पृ. २७५, २७२ ) पढना और 'प्रतीत' को 'राज्यसंवत्' का विशेषण मान कर 'गतराज्यवर्ष'भर्य करना ही उचित है तब वेलेसलमान के राजस्वकाल के ही माने जा सकते है १.ज.सो. बंगा: जि.५७, भाग १. पृ.१.२ १. मोटिसिज़ ऑफ संकत मॅनुस्किप्ट्स, जि ६, पृ. १३. ४. पै, जि १४. १९०.१९१.