भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता मथा लौकिक संस्कृत का छन्दःशास्त्र बड़ा ही जटिल है, एक एक छंद के अनेक भेद हैं और उन भदों के अनुसार उनके नाम भिन्न भिन्न हैं. ब्राह्मण और वेदों में मिलने वाले छंदों के नाम आदि उस समय में लेग्वनकला की उन्नत दशा के मचक हैं. ऋग्वेद में ऋषि नाभानेदिष्ट हज़ार अष्टकणी गाएं दान करने के कारण राजा सावर्णि की स्तुति करता है'. यहां पर 'अष्टकर्णी' शब्द का अर्थ यही है कि जिमके कान पर आठ के अंक का चिन्दहा. वैदिक काल में जुआ खेलने का प्रचार बहुन था. एक प्रकार के ग्वेल में चार पामे होने थे जिनके नाम कृत, त्रेता, द्वापर और कलि थे और जिनपर क्रमशः ४,३,२,१ के अंक या चिन्ह लिग्न या खुदे होते थे. चार के चिक वाला पासा या कृत जिताने वाला पासा था'. ऋग्वेद में एक पूरा मुक्त जुआरी (कितव) के विलाप का है जिममें वह कहता है कि एकपर' पामे के कारण मैंने अपनी पतिव्रता स्त्री ग्वो दी. यहां एकपर का अर्थ यही है कि जिमपर एक का चिह्न बना हुआ हो- (अर्थात् हरानं वाला पामा ). D 4 'महरू मदरसा च क ग (ऋग्वंद मं १०१२७) देखा ऊपर पृ.८. टिप्पण.. कमियानी भनि जिनानाप । उनिहरना भनि कम मपयन च ॥ चपनरय ब्रा (कलि नामक पासा] सा गया है. द्वापर स्थान छोड़ चुका है. ना अभी खड़ा है, न चल रहा है [नेरी सफलता की संभावना है] परिश्रम करता जा) नामिनि गाहीच न मन हापा न च । चन्नता मिान्याणासारतान विपनि गागिड वम। ( महाभारत विगटपर्य, कुंभकोणं संस्करण, ५० ३७.. (इस पर टीका चकारान मपि भम्चीयन कनादयो धनमाम्चमका पक।। भमयामा नयनां हापरीयामा चायना करियामा (नत्ति सं४३३) यक्षर जाय कितब कनादि- ननद नाय कलपन द्वापरयाधिकलिपनमा काय भयाण. ( यजु वान # ३०१ शतपथ ब्राह्मण (५५४६) से जाना जाता है कि कलि का ही नाम अभिभू था ।', 'पानकननि मान यानभिभवनि औरतैत्तिरीय ब्राह्मण ३ ४ १.१६ को यजु वाज में. ३०.१८ मे मिलाने में स्पष्ट है कि कलि - अभिभू अक्षगज ये यजुवेद के ग्रन्या में दिए हुए नाम एक दुसर पांच पामे वाल खल के मूचक है जिसमें कलि पर ५ का अंक होता था और वह मय का जीतता (अभिभू) था 'पच पच कलि म (नमि ब्रा) गॅथ और बालिद का संस्कृत कोश (वार्टवष) लन यजमाम बिकिनाति (आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, ५ २० १), सन में दक्षिण इम्भ जया में मन्य चाहिन (अधर्व सं ७५० (५.१८) मा विश्वना भग' भारत सन रूम (प्रथ. में ७५० १५२) २), चतुरयि हदमानादिभीयादा निभानो (ऋग्ये सं १ यथा समय बिजिनायाय मयन्यवान समिति निकच प्रजा माध कर्बनिन (छान्दोग्य उपनि, ४१ ४६) इस का शंकराचार्य का भाष्य कमी नाम या वृत्तममय भिरपरक भ यद जान यम प्रहत्ताना सम्म विजिताय सदभिसरं निह का। परं या वेना पर निनामान मर्याक मग चक बकि इस पर आनंदगिरि की टीका मे जान पड़ता है कि पक ही पास के चारो ओर ४. ३, २.१ अंक यन होत थे यदिक काल में एक ही पास के चारों ओर अंक होते थे, या एक एक अंक चाला पासा अलग होता था यह गौण विषय है वैदिक समय के पास विभीदक ( यहंडा ) के फल के होते थे (ऋग्व सं ७८६६,१०. ३४. १) उनके चौरस न होने तथा पासों के लिये यहुबचन आदि का प्रयोग (परं चया, ऊपर देखो) यही दिखाता है कि पासे का एक पार्श्व ही अंक से चिकित होता होगा. गजसूय यज्ञ में यजमान के हाथ में पांच पासे अभिभरभि० ( तू जीतने वाला है ) इस मन्त्र (यजु वाज सं १० २८) से दिए जाते थे फिर वहीं यज्ञभूमि में जुमा मिनाया जाता था या तो घही पांच पास डलाये जाते थे (शतपथ ब्राह्मण, ५४४२३) या 'कृतादि (चार पास का) रत'कराया जाता था जिसमें गजा के हाथ से कृत और सजात (उसी गोत्र के ज़मींदार ) से कलि का पासा डलवाने, जिससे सजात की हार हो जाती (क्योकि सजातों पर ही राजा की प्रधानता विखाना उद्देश्य था) और उसकी गौ, जो जुए में लगाई थी, जीन ली जाती. (वृतभूमौ हिरषय निधामा भिज गोलि नि मां दीव्यवमित्यार. कनादि बा मिदयाद जलभ्य समानाय कसिम मामय पनि कात्यायन श्रौतसूत्र, १५ १५-२०). 'कन' शब्द बार के अर्थ में भी इसी से भाने लगा. जैसे शतपथ ब्राह्मण में 'चहोमम सनाबाना (१३.३ २.१), तैत्तिरीय ब्राह्मण में थेचमार स्तोमा हस मत्' (२.१५ ११.१) । ऋग्वे. सं. १०.३४. .. पयारकपरस्थ रेनोरन मामप जायामरोधम (ऋग्वे सं. १० ३४ २) एक-पर, शश-पर, प्रेता के अर्थ स्पष्ट हैं पाणिनि के एक सूत्र पक्षाक्षाकासाचा परिणा २१. १०) से जाना जाता है कि मक्ष-परि, शलाका-परि, और संस्थावाचक शब्दों के साथ 'परि' के समास से बने हुए (एकपरि, द्विपरि, आदि)
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