प्राचीनलिपिमाला. अन्तस्थ. य ल ष स ऊष्मन्. ह यम. कुं बुं गुं धु इस तरह वैदिक साहित्य में अधिक से अधिक ६४ (ऋग्वेद में ६४२ और यजुर्वेद में ६३ ) ध्वनिसूचक संकेत अर्थात् वर्ण थे, परंतु पीछे से साधारण मनुष्यों एवं जैन और बौद्धों में, जिन- का प्रारंभिक साहित्य प्राकृत में था, ४६ या ४७' अक्षर व्यवहार में भाते थे. ई.स की चौथी १ याज्ञवल्क्य के अनुसार उत्तर-भारत के यजुर्वेदी लोग संहितापाठ में टबर्ग के साथ के संयोग को छोड़ कर और सर्वत्र 'ब'को 'ख' बोलते हैं. जैसे षष्ठी-खष्ठी ; इसीसे मिथिला, बंगाल, पंजाब आदि के संस्कृता तथा अन्य लोग भी संस्कृत एवं 'भाखा' में बहुधा को 'ख' बोलने लग गये. इसी वैदिक उच्चारण से प्राकृत में 'क' के दो रूप छ (च्छ) और ख (ख) हो गये. २ वर्गों के पहिले चार वर्णों का जब किसी वर्ग के पांचवें वर्ण से संयोग होता है तब उस अनुमासिक वर्ण के पहिल वैदिक काल में एक विलक्षण ध्वनि होती थी जिसे यम कहते थे, जैसे 'पस्नी' में 'त्' और 'न्' के बीच में. इस तरह बीस यम होने चाहिये, परंतु प्रातिशाख्यों में तथा शिक्षाओं में चार ही यम माने है और उनके नाम या संकेत 'कुं'. 'उषु', 'गु' और 'घु दिये हैं. इसका तात्पर्य यह है कि वी के पहिले अक्षरों अर्थात् क, च, ट, त, प के संयोग से जो यम उत्पन्न होता था वह 'क्' कहलाता था, और उसके लिये एक चिफ नियत था. इसी तरह ख, छठ, थ, फ के संयोग से उत्पन्न होने- वाल यम के लिये 'ख्' प्रकृति का चिह्न, ग. ज, ड, द. व के संयोग से बने हुए यम के लिये 'ग्' प्रकृति का कोई तीसरा चिह, और घ. म. ढ, ध, भ के संयोग से उद्धृत यम के लिये प्रकृति का कोई और चिनियत था ये चिक कैसे थे इसका पता न तो शिलालेखादि में और न पुस्तकों में मिलता है, किंतु व्याकरणपाल इन यमों को क, ख, ग, घ से बतलाते हैं, जैसे-- पत्नी पत् (मूल व्यंजन) क् (यम) नी पत्नी सक्ना सक्थ (...) सक्थापना अग्नि- अग् ग ) नि%3 अग्नि यज् यज्ञ गृभ्णामि- गृ C. ५ () णामि गृभघणामि . ऋग्वेद में २१ स्वर ('ल' के दीर्घ और प्लुत को छोड़ने से, ४ अयोगवाह (अनुस्वार, विसर्ग, लिहवामूलीय और उपध्मानीय), २७ स्पर्श वर्ण (पांचों वर्गों के २५ और 'ळ' नथा न्ह'), ४ नाथ, ४ ऊष्मन और ४ यम. मिलकर ६४ वर्ण ~ ग्य ना " " या- ( " म%3 " ४ यजुर्वेद में वर्णसंख्या बहुधा ऋग्वेद के समान ही है, केवल 'ळ' और 'ह' का प्रयोग उसमें नहीं होता परंतु उसमें अनुस्वार का रूप अलग होता है इसीसे उसमें ६३ वर्ण काम में प्रान हैं ५ जैनों के दृष्टिवाद में, जो लुप्त हो गया है, ब्राह्मी अक्षरों की संख्या ४६ मानी है, (वे. ई स्ट. १६, २८१ ), जो प्र, भा, इ, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ. अं.मः, क. ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ.ट. ठ, ड ढ ण त थद, ध. न, प, फ, ब, भ. म य, र, ल, व, श, ष,स, ह और ळ ( या क्ष) होने चाहिये. हुएन्संग अक्षरों की संख्या ४७ बतलाता है (बी; बु.रे वे प: जिल्द १, पृ. ७८), जो 'असे 'ह' तक के ४५ अक्षर तो ऊपर लिखे अनुसार और बाकी के दो अक्षर और होने चाहिये. बौद्ध और जैनो के प्राकृत ग्रंथों में ऋ, ऋ, लु, ख इन चार स्वरों का प्रयोग नहीं है प्राकृत साहित्य में इन- की आवश्यकता ही नहीं रहती. जहां संस्कृत शब्द के प्रारंभ में 'ऋ' होता है वहां प्राकृन में 'रि' हो जाता है ( ऋषभ रिखम. ऋक्ष-रिच्छ या रिक्ख ), और जहां व्यंजन के साथ 'ऋ' की मात्रा लगी होती है वहां ऋ' के स्थान में 'अ'...' या 'उ' हो जाता है (मृग-मग, तृषा-तिसा, मृदंग-मुहंग, निभृत-निहुम) ये चारों वर्ण (ऋ. ऋ, स्तृ. ४ ) अब भी साधारण लोगों के व्यवहार में नहीं आते और प्रारंभिक पढ़ने वालों की 'बारखड़ी' (बादशाक्षरी) में भी इनको स्थान नहीं मिलता. यह प्रारंभिक पठनशली आधुनिक नहीं है, किंतु अशोक के समय अर्थात् ई.स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में भी ऐसी ही थी, क्योंकि बुद्धगया के अशोक के समय के बने हुए महाबोधी मंदिर के पास बुद्ध के चंक्रम अर्थात भ्रमणस्थान में दोनों ओर ११, ११ स्तंभों की दो पंक्तियां हैं उन स्तंभों की कुंभियों (आधार) पर शिल्पियों ने एक एक करके 'अं' को छोड़ कर 'अ' से 'ट' तक के अक्षर खोदे हैं. उनमें भी ये चारों स्वर नहीं है. यद्यपि सामान्य लोगों के व्यवहार में ये चार वर्ण नहीं आते थे तो भी वर्णमाला में उनको स्थान अवश्य मिलता था, क्योंकि जापान के होयुज़ी नामक स्थान के बीच मठ में रक्खी हुई ई.स.की छठी शताम्मी की 'उम्मीषषिजयधारणी' नामक तापत्र पर लिखीपौर पुस्तक
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