पृष्ठ:भारतीय समकालीन दर्शन में प्रोफेसर रानडे के योगदान का समीक्षात्मक अध्ययन.pdf/१५

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शोध की दिशा एवं आयाम

मानव की जिज्ञासा अनन्त हैं। जगत्‌ की अनेकानैक नैसर्गिक वस्तुओं में स्वतः विकास व सामंजस्य देखकर वह इसके मूलकारण को जानना चाहता हैं। अपने इस प्रयास के अन्तर्गत वह अपने चतुर्दिक बाह्य जगत्‌ की ओर देख सकता है, वह अपने अंतस में निहित आत्मा की ओर देख सकता हैं, वह ऊपर की ओर देख सकता है जों बाद्याभ्यान्तर दोनों का समीकरण हैं तथा अपने को दोनों में अभिव्यक्स करता है। अपने इस प्रयास में मनुष्य अपने अंतस्‌ में देखने के पूर्व बाहर की ओर देखता है और ऊपर की ओर देखने के पूर्व वह अपने अन्तस्‌ की ओर देखता हैं । परमतत्व के ज्ञान में प्रायः सृष्टिविधान मूलक, ईइ्वरशास्त्र मूलक तथा मनोविज्ञानमूलक मार्ग दार्शनिकों ने स्वीकार किया हैं किन्तु वे मरतैक्य नहीं हैं। फलतः भारतीय दर्शन में अनेक सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी दार्शनिक कसौटी से परमतत्व के ज्ञान की परख की । कतिपय सम्प्रदायों ने परमतत्व का भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया हैं। पुरुष की सरल कल्पना शक्ति के लिए नैसर्गिक शक्तियों को परमसत्य मान लेना स्वाभाविक हैं किन्तु घटनाओं के गम्भीर विचार और सूक्ष्म अंतर्दर्श से यह स्पष्ट हो जाता है कि भौतिक शक्तियाँ परमसत्य नहीं मानी जा सकतीं |

भारतीय दार्शनिकों ने प्रायः आध्यात्मिक दृष्टिकोण से परमसत्ता का स्वरूप निःसृत कर प्रज्ञा की अनंत शक्ति को स्वीकार किया हैं । भारतीय दर्शन के अंतर्गत अध्यात्म विद्या और स्वानुभूति का सर्वत्कृष्ट स्थान रहा हैं ॥ श्रीमदूभगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अध्यात्म विद्या को सभी विद्याओं से श्रेष्ठ कहा हैं | * यद्यपि अध्यात्म को अमूर्त माना 1 गीता. 10/32