पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१४७

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धनंजय-विजय
लही बधू सुत-हित भयो सुख अज्ञात निवास।
तौ अब का नहिं हम लह्यो जाकी राखैं आस॥

तौ भी यह भरतवाक्य सत्य हो-

राजवर्ग मद छोड़ि निपुन विद्या में होई।

आलस मूरखतादि तजैं भारत*[१] सब कोई॥
पंडितगन पर कृति लखि कै मति दोष लगावैैं।
छुटै राज-कर, मेघ समै पै जल बरसावें॥
कजरी ठुमरिन सों मोरि मुख सत कविता सब कोउ कहै।
हिय भोगवती सम गुप्त हरि प्रेम धार नितही बहै+[२]
और भी
"सौजन्यामृतसिन्धवः परहितप्रारब्ध वीरव्रताः
वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्रताः।
आपत्स्वप्यविल्लुप्तधैर्य्ययनिचया सम्पत्स्वनुत्सेकिनो

मा भूवन् खलवक्र्तनिर्ग्गतविषम्लानाननाः सज्जनाः"+[३]

विरा०-तथास्तु।

(सब जाते हैं)


  1. * पाठा० श्री हरिपद मैं भक्ति करें छल बिनु।
  2. + पाठा० यह कविबानी बुध बदन मैं रवि ससि लौं प्रगटित रहै।
  3. +सौजन्य रूपी अमृत के समुद्र, दूसरे की भलाई में दृढ़व्रती, दूसरे की प्रशंसा में बकवादी पर अपनी प्रशंसा करने में मौनी बाबा, कष्ट में धैर्य के
    समूह को न छोड़ने वाले और सम्पत्ति कान में नम्र जो सज्जन हैं, वे दुष्टों के मुख से निकले बिष भरी बातों से उदास मुख न हों।