पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२१०

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सत्यहरिश्चंद्र

साई मुख सोई उदर, सोई कर पद दोय।
भयो आजु कछु और ही, परसत जेहि नहिं कोय॥
हाड़ मॉस लाला रकत, बसा तुचा सब सेाय।
छिन्न भिन्न दुर्गंध-मय, मरे मनुस के होय॥
कादर जेहि लखि कै डरत, पंडित पावत लाज।
अहो! व्यर्थ संसार को, विषय बासना साज॥
अहो! मरना भी क्या वस्तु है।

सोई मुख जेहि चंद बखान्यौ।
सोई अंग जेहि प्रिय करि जान्यौ॥
सोई भुज जे प्रिय गर डारें।
सोई भुज जिन नर बिक्रम पारें॥
सोई पद जिहि सेवक बंदत।
साई छबि जेहि देखि अनंदत॥
सोइ रसना जहँ अमृत बानी।
जेहि सुन के हिय नारि जुड़ानी॥
सोइ हृदय जहँ भाव अनेका।
सोई सिर जहँ निज बच टेका॥
सोई छबि-मय अंग सुहाए।
आज जीव बिनु धरनि सुहाए॥
कहाँ गई वह सुंदर सोभा।
जीवत जेहि लखि सब मन लोभा॥