पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२६७

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प्रेमजोगिनी

झूरी०---

गुरू साहब, हम हियाँ भाँग का रगड़ा लगा
बीच में गहन के मारे-पीटे ई धूआँकस आय गिरे।
आके पिंजड़े में फँसा अब तो पुराना चंडूल।
लगी गुलसन की हवा, दुम का हिलाना गया भूल॥

( परदेसी के मुँह के पास चुटकी बजाता है और नाक के पास से उँगली लेकर दूसरे हाथ की उँगली पर घुमाता है )

पर०---भाई तुम्हारे शहर सा तुम्हारा ही शहर है, यहाँ की लीला ही अपरंपार है।

झूरी०---तोहूँ लीला करथौ।

पर०---क्या?

झूरी०---नहीं ई जे तोहूँ रामलीला में जाथौ कि नाहीं?

( सब हँसते हैं )

पर०---( हाथ जोड़कर ) भाई, तुम जीते हम हारे, माफ करो।

झूरी०---( गाता है ) तुम जीते हम हारे साधो, तुम जीते हम हारे।

सुधा०---( आप ही आप ) हा! क्या इस नगर की यही दशा रहेगी? जहाँ के लोग ऐसे मूर्ख हैं वहाँ आगे किस बात की वृद्धि की संभावना करें! केवल यह मूर्खता छोड़ इन्हें कुछ आता ही नहीं! निष्कारण किसी को बुरा-भला कहना! बोली ही बोलने में इनका परम पुरुषार्थ! अनाब-