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श्रीचंद्रावली

व्रज की लता पता मोहि कीजै
गोपी-पद-पंकज-पावन की रज जामैं सिर भींजै॥
आवत जात कुंज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै।
श्रीराधे राधे मुख, यह बर मुँहमाँग्यौ हरि दीजै॥

( प्रेम-अवस्था में आते हैं और नेत्रों से आँसू बहते हैं )

शुक०---( अपने आँसू पोछकर ) हा धन्य हैं आप, धन्य हैं, अभी जो मैं न सम्हालता तो वीणा आपके हाथ से छूटके गिर पड़ती। क्यों न हो, श्रीमहादेवजी की प्रीति के पात्र होकर आप ऐसे प्रेमी हों इसमें आश्चर्य नहीं।

नारद---( अपने को सम्हालकर ) अहा! ये क्षण कैसे आनंद से बीते हैं, यह आप से महात्मा की संगत का फल है।

शुक०---कहिए, उन सब गोपियों में प्रेम विशेष किसका है?

नारद---विशेष किसका कहूँ और न्यून किसका कहूँ, एक से एक बढ़कर हैं। श्रीमती की कोई बात ही नहीं, वे तो श्रीकृष्ण ही हैं, लीलार्थ दो हो रही हैं; तथापि सब गोपियों में श्रीचंद्रावलीजी के प्रेम की चर्चा आजकल ब्रज के डगर-डगर में फैली हुई है। अहा! कैसा विलक्षण प्रेम है, यद्यपि माता-पिता, भाई-बन्धु सब निषेध करते हैं और उधर श्रीमतीजी का भी भय है, तथापि श्रीकृष्ण से जल में दूध की भाँति मिल रही है। लोकलाज-गुरुजन कोई बाधा