पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६२
भारतेंदु-नाटकावली

परमारथ स्वारथ दोउ कँह सँग मेलि न सानै।
जे आचारज होइँ धरम निज तेह पहिचानै॥
बृंदाबिपिन बिहार सदा सुख सों थिर होई।
जन बल्लभी कहाइ भक्ति बिनु होइ न कोई॥
जगजाल छाँड़ि अधिकार लहि कृष्णचरित सबही कहै।
यह रतन-दीप हरि-प्रेम को सदा प्रकाशित जग रहै॥

( फूल की वृष्टि होती है, बाजे बजते हैं और जवनिका गिरती है )

इति परमफलचतुर्थ अंक