पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३७८

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मुद्राराक्षस

शकटार ने बहुत दिन तक महामात्य का अधिकार भोगा था, इससे यह अनादर उसके पक्ष में अत्यंत दुखदाई हुआ। नित्य सत्तू का बरतन हाथ में लेकर अपने परिवार से कहता कि जो एक भी नंदवंश को जड़ से नाश करने में समर्थ हो वह यह सत्तू खाय। मंत्री के इस वाक्य से दुखित होकर उसके परिवार का कोई भी सत्तू न खाता। अंत में कारागार की पीड़ा से एक-एक करके उसके परिवार के सब लोग मर गए।


ब्याड़ि और इद्रदत्त तीनों को गुरुदक्षिणा देने के हेतु करोडों रुपए के सोने की आवश्यकता हुई। तब इन लोगों ने सलाह की कि नंद ( सत्यनद ) राजा के पास चलकर उससे सोना लें। उन दिनों राजा का डेरा अयोध्या में था, ये तीनों ब्राह्मण वहाँ गए, किंतु संयोग से उन्ही दिनों राजा मर गया। तब आपस में सलाह करके इद्रदत्त योगबल से अपना शरीर छोडकर राजा के शरीर में चला गया, जिससे राजा फिर जी उठा। तभी से उसका नाम योगानंद हुआ। योगानद ने वररुचि को करोड रुपए देने की आज्ञा की। शकटार बड़ा बुद्धिमान् था; उसने सोचा कि राजा का मर कर जीना और एक बारगी एक अपरिचित को करोड रुपया देना इसमें हो न हो कोई भेद है। ऐसा न हो कि अपना काम करके फिर राजा का शरीर छोडकर यह चला जाय, यह सोचकर शकटार ने राज्य भर में जितने मुरदे मिले उनको जलवा दिया, उसी में इंद्रदत्त का भी शरीर जल गया। जब व्याडि ने यह वृत्तांत योगानंद से कहा तो यह सुनकर वह पहिले तो दुखी हुआ पर फिर वररुचि को अपना मत्री बनाया। वह अंत में शकटार की उग्रता से सतप्त होकर उसको अधे कुएँ में कैद किया। बृहत्कथा में शकटार के स्थान पर शकटाल नाम लिखा है।