सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

महाकवि विशाखदत्त का बनाया

मुद्राराक्षस

स्थान---रंगभूमि

रंगशाला में नांदी-मंगलपाठ

भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर॥
'कौन है सीस पैं' 'चंद्रकला' 'कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी'।
'हाँ यही नाम है, भूल गईं किमि जानत हू तुम प्रान-पियारी'॥
'नारिहि पूछत चंद्रहिं नाहि, 'कहै बिजया जदि चंद्र लबारी'।
यो गिरिजै छलि गंग छिपावत ईस हरौ सब पीर तुम्हारी॥
पाद-प्रहार सों जाइ पताल न भूमि सबै तनु-बोझ के मारे।
हाथ नचाइबे सों नभ मैं इत के उत टूटि परै नहिं तारे॥
देखन सो जरि जाहिं न लोक न खोलत नैन कृपा उर धारे।
यो थल के बिनु,कष्ट सो नाचत शर्व हरौ दुख सर्व तुम्हारे॥*


  • संस्कृत का मंगलाचरण---

धन्या केय स्थिता ते शिरसि शशिकला, किन्नु नामैतदस्या
नामैवास्यास्तदेतत्; परिचितमपि ते विस्मृत कस्य हेतो।
नारी पृच्छामि नेन्दु; कथयतु विजया न प्रमाणं यदीन्दु-
र्देव्या निनोतुमिच्छोरिति सुरसरित शाठ्यमव्याद्विभोर्वः॥१॥