सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४७
मुद्राराक्षस

मुख लखत बीतत दिवस निसि भय रहत संकित प्रान है।
निज उद-पूरन हेतु सेवा श्वान-वृत्ति समान है॥

( चारों ओर घूमकर देखकर )

अहा! यही आर्य चाणक्य का घर है तो चलूँ। ( कुछ आगे बढ़कर और देखकर ) अहाहा! यह राजाधिराज श्रीमंत्रीजी के घर की संपत्ति है। जो---

कहुँ परे गोमय शुष्क, कहुँ सिल पीर सोभा दै रही।
कहुँ तिल, कहूँ जव-रासि लागी बटुन जो भिक्षा लही॥
कहुँ कुस परे कहुँ समिध सूखत भार सो ताके नयो।
यह लखौ छप्पर महा जरजर होइ कैसो झुकि गयो॥

महाराज चंद्रगुप्त के भाग्य से ऐसा मंत्री मिला है---

बिन गुनहूँ के नृपन को धन हित गुरुजन धाइ।
सूखो मुख करि झूठहीं बहु गुन कहहिं बनाइ॥
पै जिनको तृष्णा नहीं ते न लबार समान।
तिनसो तृन सम धनिक जन पावत कबहुँ न मान॥

( देखकर डर से ) अरे आर्य चाणक्य यहाँ बैठे है, जिन्होने---

लोक ध्रषि चंद्रहि कियो राजा नंद गिराइ।
होत प्रात रवि के कढ़त जिमि ससि तेज नसाइ॥

( प्रगट दंडवत् करके ) जय हो! आर्य की जय हो!!

चाणक्य---( देखकर ) कौन है वैहीनर! क्यों आया है?