के आगे मार्ग दिखलाने वाला मॉझी रहता है, वैसे ही तेरे हाथ में यह लखौटा है।
सिद्धा---अजी भदंत! भला यह तुमने ठीक जाना कि मैं परदेश जाता हूँ, पर यह कहो कि आज दिन कैसा है?
क्षप०---( हॅसकर ) वाह श्राषक वाह! तुम मूँड़ मुँड़ाकर भी नक्षत्र पूछते हो?
सिद्धा०---भला अभी क्या बिगड़ा है? कहते क्यों नहीं? दिन अच्छा होगा जायँगे, न अच्छा होगा न जाएँगे।
क्षप०---चाहे दिन अच्छा हो या न अच्छा हो, मलयकेतु के कटक से बिना मोहर लिए कोई जाने नहीं पाता।
सिद्धा०---यह नियम कब से हुआ?
क्षप०---सुनो, पहिले तो कुछ भी रोक-टोक नहीं थी, पर जब से कुसुमपुर के पास आए हैं तब से यह नियम हुआ है कि बिना मोहर के न कोई जाय न आवे। इससे जो तुम्हारे पास भागुरायण की मोहर हो तो जाओ नहीं तो चुप बैठ रहो, क्योकि पीछे से तुम्हें हाथ-पैर न बँधवाना पड़े।
सिद्धा---क्या यह तुम नहीं जानते कि हम राक्षस के अंतरंग खेलाडी मित्र हैं? हमें कौन रोक सकता है?
क्षप०---चाहे राक्षस के मित्र हो चाहे पिशाच के, बिना मोहर के कभी न जाने पाओगे।