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भारतेंदु-नाटकावली

नामधेय महाराज पर्वतेश्वर के पहिरने के आभरणों को न पहचानेंगी?

मलय०---( ऑखो में ऑसू भर के )

भूषण-प्रिय! भूषण सबै, कुल-भूषण! तुव अंग।
तुव मुख ढिग इमि सोहतो, जिमि ससि तारन-संग॥

राक्षस---( आप ही आप ) ये पर्वमेश्वर के पहिने हुए आभरण हैं? ( प्रकाश ) जाना, यह भी निश्चय चाणक्य के भेजे हुए जौहरियो ने ही बेंचा है।

मलय०---आर्य! पिता के पहने हुए आभरण और फिर चंद्रगुप्त के हाथ पड़े हुए जौहरी बेचे, यह कभी हो नहीं सकता। अथवा हो सकता है---

अधिक लाभ के लोभ सों कूर! त्यागि सब नेह।
बदले इन आभरन के तुम बेंच्यौ मम देह॥

राक्षस---( आप ही आप ) अरे! यह दॉव तो पूरा बैठ गया।

मम लेख नहिं यह किमि कहै मुद्रा छपी जब हाथ की।
विश्वास होत न शकट तजिहै प्रीति कबहूँ साथ की॥
पुनि बेचि हैं नृप चंद भूषण कौन यह पतियाइहै।
तासों भलो अब मौन रहनो कथन तें पति जाइहै॥

मलय०---आर्य! हम यह पूछते हैं।

राक्षस---जो आर्य हो उससे पूछो; हम अब पापकारी अनार्य हो गए हैं।