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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५२५

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भारतेंदु-नाटकावली

स्त्री-हाय हाय! जो हम लोग नित्य अपनी बात बिगड़ने के डर से फूँ-फूँककर पैर रखते थे उन्हीं हम लोगों की चारों को भॉति मृत्यु होती है। काल देवता को नमस्कार है, जिसको मित्र उदासीन सभी एक से हैं, क्योंकि---

छोड़ि मांस-भख मरन-भय जियहिं खाइ तृन घास।
तिन गरीब मृग को करहिं निरदय ब्याधा नास॥

( चारों ओर देखकर )

अरे भाई जिणुदास! मेरी बात का उत्तर क्यो नहीं देते? हाय! ऐसे समय में कौन ठहर सकता है।

चंदन०---( ऑसू भरकर ) हाय! यह मेरे सब मित्र विचारे कुछ नहीं कर सकते, केवल रोते हैं और अपने को अकर्मण्य समझ शोक से सूखा-सूखा मुँह किए ऑसू-भरी आँखों से एकटक मेरी ही ओर देखते चले आते हैं।

दोनों चांडाल---अजी चंदनदास! अब तुम फॉसी के स्थान पर आ चुके इससे कुटुंब को बिदा करो।

चंदन०---( स्त्री से ) अब तुम पुत्र को लेकर जाओ, क्योंकि आगे तुम्हारे जाने की भूमि नहीं है।

स्त्री---ऐसे समय में तो हम लोगों को बिदा करना उचित ही है, क्योंकि आप परलोक जाते हैं, कुछ परदेश नहीं जाते।

(रोती है)