सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४९४
भारतेंदु-नाटकावली

इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
सब कॉपत भूमंडल अकास॥
इनहीं के हुंकृति शब्द घोर।
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर॥
जब लेत रहे कर में कृपान।
इनहीं कहॅ हो जग तृन समान॥
सुनि कै रनबाजन खेत माहिं।
इनहीं कहँ हो जिय संक नाहिं॥

याही भुव महॅ होत है हीरक आम कपास।
इतही हिमगिरि गंगजल काव्य गीत परकास॥
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
रहे भारतहि अंक में कबहिं सबै भुवदेव॥
याही भरत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
जिनके भारत-गान सों भारत-बदन प्रकास॥
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास॥
याही भारत में गए मनु भृगु आदिक होय।
तब तिनसों जग में रह्यो घृना करत नहिं कोय॥
जासु काव्य सों जगत मधि अब लौं ऊँचो सीस।
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस॥