पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५११
नीलदेवी


चौ॰रा॰––महाराज! इसमें क्या संदेह है, और हम लोगों को एकाएकी अधर्म से भी जीतना कुछ दाल-भात का गस्सा नहीं है।

नीलदेवी––तो भी इन दुष्टों से सदा सावधान ही रहना चाहिए। आप लोग सब तरह चतुर हो, मैं इसमें विशेष क्या कहूँ। स्नेह कुछ कहलाए बिना नहीं रहता।

सूर्य्य॰––(आदर से) प्यारी! कुछ चिंता नहीं है, अब तो जो कुछ होगा देखा ही जायगा न। (राजपूतों से)

सावधान सब लोग रहहु सब भाँति सदा हीं।
जागत ही सब रहै रैन हूँ सोअहिं नाहीं॥
कसे रहैं कटि रात-दिवस सब बीर हमारे।
अस्वपीठ सों होंहिं चारजामें जिनि न्यारे॥
तोड़ा सुलगत चढ़े रहै घोड़ा बंदूकन।
रहैं खुली ही म्यान प्रतंचे नहिं उतरें छन॥
देखि लेहिंगे कैसे पामर यवन बहादुर।
आवहिं तो चढ़ि सनमुख कायर कूर सबै जुर॥
दैहै रन को स्वाद तुरंतहि तिनहिं चखाई।
जो पै इक छन हू सनमुख ह्वै करहिं लराई॥

(जवनिका पतन)