(कुमार सोमदेव चार राजपूतों के साथ बाहरी डेरे में आते हैं)
सोम॰––भाइयो! महाराज का समाचार तो आप लोगों ने सुना। अब कहिए क्या कर्त्तव्य है? मेरी तो शोक से मति विकल हो रही है। आप लोगों की जो अनुमति हो, किया जाय।
प॰ राज॰––कुमार! आप ऐसी बात कहेंगे कि शोक से मति विकल हो रही है तो भारतवर्ष किसका मुँह देखेगा! इस शोक का उत्तर हम लोग अश्रुधारा से न देकर कृपाणधारा से देंगे।
दू॰ राज॰––बहुत अच्छा!!! उन्मत्त सिंह, तुमने बहुत अच्छा कहा। इन दुष्ट चांडाल यवनो के रुधिर से हम जब तक अपने पितरों का तर्पण न कर लेंगे, हम कुमार की शपथ करके प्रतिज्ञा करके कहते हैं कि हम पितृ-ऋण से कभी उऋण न होंगे।
ती॰ राज॰––शाबाश! विजयसिंह, ऐसा ही होगा। चाहे, हमारा सर्वस्व नाश हो जाय परंतु आकल्पांत लोहलेखनी से हमारी यह प्रतिज्ञा दुष्ट यवनों के हृदय पर लिखी रहेगी। धिक्कार है उस क्षत्रियाधम को जो इन चांडालों के मूलनाश में न प्रवृत्त हो।
चौ॰ राज॰––शत बार धिक्कार है सहस्र बार धिक्कार है उसको जो मनसा, वाचा, कर्मणा किसी तरह इन कापुरुषों