पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११०७

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397 वर्णित करे । फिची के कथन का सार मर्म यही है कि वह सर्वव्यापी परमात्मा अपनी ब्रहमा विष्णु और महेश आदि अनेक ज्योतियों में से किसी न किसी थोड़ी या बहुत ज्योति से प्रत्येक पदार्थ के सारभाग को उद्भासित कर रहा है । बहमवादी इसी से जगत को केवल ब्रहमय मानते हैं । प्रकृतिवादी सत रज और तम भेद से उस का जगत में व्याप्य होना कहते हैं । "ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत" ।। यह ईशोपनिषद का वाक्य है, जिसका अर्थ यह है । जो कुछ सृष्टि में भंगुर पदार्थ है यह सब परमेश्वर से बसा है । इसी के व्याख्या स्वरूप उसी उपनिषद के पांचवे श्लोक में कहा है ? 'तदन्तरस्य सर्वस्य तद सर्व स्यास्य बाहयत:" अर्थात वही इस सब के भीतर है वही इस सब के बाहर है । इसी से स्वामी शंकराचार्य ने ज्ञान रूप परमात्मा का जगत में व्याप्त होने की शिक्षा देने की अपेक्षा उस का साक्षात् रूप जगत होना कहा और संसार में अद्वैतवाद का भण्डा खड़ा किया । इसी. क्या अन्तर क्या वाहय, सर्वव्यापी ईश्वरीयज्ञान प्रभा के प्रकाश से चौंधिया कर भगवान बुध ने निर्वाण पद पाकर जीव का साक्षात परमेश्वर होना माना है । कहां तक कहें यह वह विषय है कि जिस को सारा चराचर जगत अपनी आत्मा से भली भाति मान रहा है । फिची [Fitche] ने इसी लिये लेखक को धर्मोपदेशक भी कहा है क्योंकि वह नाना प्रकार से मनुष्यों को ऐश्वरीयभाव दर्शाने की चेष्टा करता है । मानों या न मानों परन्तु इस में कुछ भी सन्देह नहीं कि सच्चे लेखक की आत्मा आवश्य पवित्र होती है उस के विचार ऐश्वरीयज्ञान से परिपूर्ण होते हैं । लेखक जगत का प्रकाश है. लेखक जगत का गुरु है, उसी के प्रकाश के सहारे हम पायपूरित अंधियारी रजनी में अपनी संसार यात्रा को समाप्त करते हैं और उसी के उपदेश में हम इन्द्रिय लालसाओं के और लुटेरों के पचों से बचते हैं । अयोग्य अथवा झूठे लेखक वे हैं जो ऐश्वरीयज्ञान से वञ्जित रहते और सांसारिक विषयों की इच्छा रखते हुए जगत को भुलावे में डाल का अपना अर्थसाधन करते है । जिन्हें देहिक सुख की कामना है वे आत्मिक सुख का कभी अनुभव नहीं कर सकते हैं । जो लेखक ऐसे हैं उनको उन्हें, स्वार्थी और मिथ्या वादी कहना पाप न होगा । परमात्मा करे, विद्या के पवित्र क्षेत्र में ऐसे नराधमों का कभी पैर न पड़ने पावे। हमारे पूजनीय पूर्वपुरुषों नो देवालयों में भगवत पूजन करने और देवनदियों में निर्धारित तिथियों को स्नान करने और विद्वानों के समागम पर एक स्थान पर एकत्रित होने की प्रथा इसी लिये प्रचलित की थी कि ऐसे समयों पर तो भी सर्वसाधारणजन योग्यपुरुषों की विद्याबुद्धि और बाकि शक्ति का परिचय पा सकें । उन को मालूम था वाकशक्ति के समान जाति की उन्नति के लिये और कोई शक्ति लाभदायक नहीं है और यदि यह न हुई तो जातीय जीवन किसी काम का नहीं है। उनका यह कार्य कैसा उच्च, पवित्र, सुन्दर , लाभकारी और महान था । परन्तु यह देखो लेखनप्रणाली और मुद्रणयंत्र के सहारे अब जगत के इन कायों का कैसा उलट फेर हो गया है । लेखक (प्रथकार) धर्मोपदेशक की नाई इधर उधर यहा' वहां नगर धर्मापदेश नहीं देता फिरता है, परन्तु वह एक ही समय में एक दूसरे से बहुत दूर बसे हुए अनेक स्थानों पर अपनी शिक्षाओं को सुनाता है । परन्तु शोक है कि इन बेचारे लेखकों की सुनते बहुत कम है । नाना प्रकार के मनोहर पदार्थों से सुसज्जित कमरे में बैठे आचार्य्यवर की नवरमपूरित कयाओं को छोड़ कर कौन ऐसा मन्दमति होगा जो कुछ पैसे खर्च कर एकाचा हो कर लेखक के कोरे कागज में अपना सिर खपायेगा । पञ्चभूतनिर्मित इस शरीरराज्य के राजा मन का कष्ट छोड़ शारीरकसुख भोगने का स्वाभाविकगुण है । इसी से मनुष्य विवेचनारहित हो कर सुख दुःख की सीमा का विना मिलान किये हुए कष्ट साध्य कामों से दूर भागता है परिमाण में दुःख की अपेक्षा सुख गती है जो लेखक के भविष्यत सुख पर विश्वार की लये कौन पूछता कि कहा से कितना ही गुना क्यों न हो' । इसी से वर्तमान दैहिक सुख को सुख समझने वाले जगत में ऐसी किस की भी आया कहा जायगा कैसे आया और कैसे जायगा ? वह जगत में एक अपरिचित मनुष्य की नाई मारा २ फिरता है । गृहहीन, आश्रमहीन और सहायहीन बन वासी मनुष्य की नाई वह उसी जगत में जिस का वह स्वयं अज्ञानान्धकारनाशी निर्मल प्रकाश है घूमता फिरता है। संसार में मनुष्य ने अपनी बुद्धि से जितने अद्भुत आविष्कार किये हैं उन में सब से बढ़ कर लिपि निर्माण है । पुराणों में महादेव के गणों के कैसे २ चमत्कारिक कार्य लिखे हैं परन्तु हम कहते है कि पुस्तको और धनवान शिष्य दल से घिरे हुए लेखक और नागरी लेखक १०६३