पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२२५

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सारंग 'हरीचंद' बल्लभ-बल पीओगी प्यारे को कोमल तन परसि आवत आज अधर-रस, छाँडोगी अब न सरन ।२६ याही तें बयार अंग सीतल करत है। सनित सुगंध मंद मंद आइ मेरे ढिग मंगल महा जुगल रस-केलि । जिन तृन करि जग सकल अमंगल पायन दीने पेलि । प्रेम सो हुलसि सखी अंकम भरत है। सुख-समूह आनंद अखंडित भरि भरि धर्यो सकेलि। हिय की खिलत कली मदन जगत अली 'हरीचंद' जन रीझि भिजायो सर-समुद्र उर झेलि।२७ पिय के मिलन को चित चाव बितरत है। 'हरीचंद' चलि कुंज जहाँ करै भौर गुंज नाथ मैं केहि बिधि जिय समझाऊं। प्यारो सेज साजि मेरे ध्यान को धरत ।२१ बातन सों यह मानत नाही कौसे कहौ मनाऊं। श्याम अभिराम रति-काम-मोहन सदा जदपि याहि विश्वास परम दृढ़ बेद-पुरानहु साखी । बाम श्री राधिका संग लीने । कछु अनुभवहू होत कहत है जद्यपि सोह बहु भाखी । कुंज सुख-पुंज नित गुंजरत भौर जहाँ तऊ कोटि ससि कोटि मदन सम तुव मुख बिनू दृग देखें। गुंज-बन-दाम गल माहिदीने 1 कोटि घन बिज्जु ससि सूरमनि नील अरु धीरज होत न याहि तनिकह समाधान केहि लेखें । हीर छषि जुगल प्रिय निरखि छीने । निस-दिन परम अमृत-सम लीला चेहि मानै अरु गावै। करत दिन केलि भुज मेलि कुच ठेलि तेहि बिनु अपुने चख सों देखें किमि यह धीरज पावै । लखि दास 'हरिचंद जयजयति कीने ।२२ दरसन कर रहै लीला मैं जिय भरि आनंद लूटै । तृप्त होहिं तब मन इंद्रिय को अनुभव भुस लै कूटै । आयु मुख चूमत पिय को प्यारी । संपति सपने की न काम की मृग-तृष्णा नहिं नीकी । भरि गाढ़े भुज दृढ़ करि अँग 'हरीचंद' बिनु सुधा जिआवै कैसे छछिया फीकी ।२८ अंग उमगि उमगि सुकुमारी । लहि इकत प्रानहु तें प्रियतम करत मनोरथ भारी । आजु दोउ बैठे हैं जल-भौन । उर अभिलाख लाख करि करि कै पुजवत साध महारी । हौज किनारे भरे मौज सों प्यारी राधा-रौन । मानत धन धन भाग आपुने देत प्रान-धन वारी । सावन-भादों छुटत फुहारे नीरहि नीर दिखाई। 'हरीचंद' लूटत सुख-संपति श्री बृषभानु-दुलारी ।२३ | भींज रहे दोउ तह रस-भीजे सखि लखि लेत बलाई । घन गरजत बरसत लखि दोऊ बूंद बदन पर सोभा पावत कमल ओस लपटाने । औरहु लपटि लपटि रहे सोय । बिथुरे बारन मैं मनु मोती पोहे अति सरसाने । स्यामा-स्याम इकत कुंज में झीने बसन श्याम अंग झलकत सोभा नहि कहि जाई। अरु तीसरो निकट नहिं कोय । मनहुँ नीलमनि सीसे-संपुट धर्यो अतिहि छबि छाई। दामिनि दमकत ज्यौं ज्यौं त्यौ त्यौं धार फुहार सीस पर लैहों लखि कै दृग सुख पावै । गाढ़ी भरत भुजा की होय । मनु अभिषेक करत सब सुर मिलि छबि सों परम सुहावै। 'हरीचंद' बरसत घन उत इत कै जमुना बहु रूप धारि कै जुगल मिलन हित आई । रस बरसत पिय-प्यारी दोय ।२४ कै चपला घन देखि और घन मिलि बरसा बरसाई। लोचन ही लखिए सो सोभा कहे कयौ नहिं आवै । धन दिन धन मम भाग कुंज धन दोऊ जहाँ पधारे। राखौंगी बिनती करि दोऊन को आजू प्रिया पिय प्यारे। 'हरीचंद' बिनु बल्लभ-पद-बल और लखन को पावै।२९ ने न पाँवरे बिछाइ करोंगी आँचर-बिजन बयारे । मन मेरो कहुँ न लहत विश्राम । 'हरीचंद' बारौंगी सर्बस गाऊँगी गुन-गन भारे ।२५ तृष्णातुर धावत इत तें उत पावत कहुँ नहिं ठाम । कबहुंक मोह-फाँस मैं बाँध्यौ धन-कुटुंब-मुख जोहै आज धन भाग हमारे यह घरी धन मेरे घर आए गिरिराज-धरन । तिनहूँ सों जब लहत अनादर तब ब्याकुल हवै मोहै । नाचों गाओंगी करौंगी बधाई वारि कबहूँ काढू नारि-प्रेम-बस ताहि को सरबस माने । डारौंगी तन-मन-धन-प्रान-अभरन । ताह सो प्रति-प्रेम मिलन बिनु अकुलि और उर आनें। राखौंगी कंठ लाइ जान न देहौं फेर देवी-देव तंत्र-मंत्रन में कबहुँ रहत अरुझाई । करि विनती बहु गहि कै चरन । तिनहूँ सो जब काज सरत नहिं तबहिरहत आकुलाई। 1 कृष्ण चरित्र १२५