पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३७२

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महाराज हँसे उसी पर मैं भी हँसी ।' महानंद इस बात पर और भी चिदा और कहा कि अभी बतला मैं क्यों हँसा, नहीं तो तुझको प्राचदंड होगा । दासी से और कुछ उपाय न बन पड़ा और उसने घबड़ाकर इसके उत्तर देने की एक महीने की मुहल्लत चाही । राजा ने कहा -आज से ठीक एक महीने के भीतर जो उत्तर न देगी तो कभी तेरे प्राण न बचेंगे। विचक्षणा के प्राण उस समय तो बच गए परंतु महीने के जितने दिन बीतते थे. मारे चिंता के वह मरी जाती थी। कुछ सोच विचार कर वह एक दिन कुछ खाने-पीने की सामग्री लेकर शकटार के पास गई और रो-रोकर अपनी सब बिपत्ति कहने लगी । मंत्री ने कुछ देर तक सोचकर उस अवसर की सब घटना पूछी और हँसकर कहा -"मैं जान गया राजा क्यों हंसे थे । कुल्ला करने के समय पानी के छोटे छीटों पर राजा को वटबीज की याद आई, और यह भी ध्यान हुआ कि ऐसे बड़े बड़ के वृक्ष इन्हीं छोटे बीजों के अंतर्गत हैं । किन्तु भूमि पर पड़ते ही वह जल के छीटे नाश हो गए । राजा अपनी इसी भावना को याद करके हँसते थे।' विचक्षणा ने हाथ जोड़कर कहा 'यदि आप के अनुमान से मेरे प्राण की रक्षा होगी तो मैं जिस तरह से होगा आपको कैदखाने से छुड़ाऊंगी और जन्म भर आपकी दासी होकर रहूँगी।' राजा ने विचक्षणा से एक दिन फिर हंसने का कारण पूछा. तो विचक्षणा ने शकटार से जैसा सुना था कह सुनाया । राजा ने चमत्कृत होकर पूछा -- 'सच बता, तुझसे यह भेद किसने कहा ।' दासी ने शकटार का सब वृत्त कहा और राजा को शकटार की बुद्धि की प्रशंसा करते देख अवसर पाकर उसके मुक्त होने की प्रार्थना भी की । राजा ने शकटार को बंदी से छुड़ाकर राक्षस के नीचे मंत्री बनाकर रखा। ऐसे अवसर पर राजा लोग बहुत चूक जाते हैं। पहले तो किसी की अत्यन्त प्रतिष्ठा बड़ानी ही नीतिविरुद्ध है। यदि संयोग से बढ़ जाय तो उसकी बहुत सी बातों को तरह देकर टालना चाहिए और जो कदाचित बड़े प्रतिष्ठित मनुष्य का राजा अनादर करे तो उसकी जड़ काटकर छोड़े फिर उसका कभी विश्वास न करे । प्राय : अमीर लोग पहले तो मुसाहिब या कारिंदों को बेतरह सिर चढ़ाते हैं, और फिर छोटी छोटी बातों पर उसकी प्रतिष्ठा हीन कर देते हैं (इसी से ऐसे लोग राजाओं के प्राण के गाहक हो जाते हैं और अंत में नंद की भाँति उसका सर्वनाश होता है। शकटार यद्यपि बंदीखाने से छूटा और छोटा मंत्री भी हुआ. किन्तु अपनी अप्रतिष्ठा और परिवार के नाश का शोक उसके चित्त में सदा पहिले ही सा जागता रहा । रात दिन वह यही सोचता कि किस उपाय से ऐसे अव्यवस्थितचित्त उद्धत राजा का नाश करके अपना बदला ले! एक दिन वह घोड़े पर हवा खाने जाता था । नगर के बाहर एक स्थार पर देखता है कि एक काला सा ब्राह्मण अपनी कुटी के सामने मार्ग की कुशा उखाड़-उखाड़ कर उसकी जड़ में मठा डालता जाता है । पसीने से लथपथ है, परंतु कुछ भी शरीर की ओर ध्यान नहीं देता । चारों ओर कुशा के बड़े-बड़े ढेर लगे हुए हैं । शकटार ने आश्चर्य से ब्राह्मण से इस श्रम का कारण पूछा । उसने कहा -'मेरा नाम विष्णुगुप्त चाणक्य है । मैं ब्रह्मचर्य में नीति, वैद्यक, ज्योतिष, रसायन आदि संसार की उपयोगी सब विद्या पढ़कर विवाह की इच्छा से नगर की ओर आया था, किंतु कश गड़ जाने से मेरे मनोरथ में विघ्न हुआ, इसले जब तक इन बाधक कुशाओं का सर्वनाश न कर लूंगा और काम न करूंगा । मठा इस वास्ते इनकी जड़ में देता है जिससे पृथ्वी के भीतर इनका मूल भी भस्म हो जाय ।' शकटार के जी में यह बात आई कि ऐसा पक्का ब्राह्मण जो किसी प्रकार राजा से ऋद्र हो जाय तो उसका जड़ से नाश करके छोड़े । यह सोचकर उसने चाणक्य से कहा कि जो आप नगर में चलकर पाठशाला स्थापित करें तो मैं अपने को बड़ा अनुगृहीत समझू । मैं इसके बदले बेलदार लगाकर यहां की सब कशाओं को खुदवा डालूँगा । चाणक्य इस पर संमत हुआ और उसने नगर में आकर एक पाठशाला स्थापित की । बहुत से विद्यार्थी लोग पढ़ने आने लगे और पाठशाला बड़े धूमधाम से चल निकली। अब शकटार इस सोच में हुआ कि चाणक्य से राजा से किस चाल से बिगाड़ हो । एक दिन राजा के घर में श्राद था । उस अवसर को शकटार अपने मनोरथ सिद्ध होने का अच्छा समय सोचकर चाणक्य को श्राद्ध का न्योता देकर अपने साथ ले आया और श्राद्ध के आसन पर बिठला कर चला गया. क्योंकि वह जानता था कि चाणक्य का रंग काला. आँखें लाल और दाँत काले होने के कारण नंद उसको आसन पर से उठा देगा, जिससे चाणक्य अत्यंत क्रत होकर उसका सर्वनाश करेगा। भारतेन्दु समग्र ३२८