६० भारतेंदु हरिश्चन्द्र गाने बजाने के साथ चौसट्ठी ( चतुश्शष्टी) देवी के दर्शन को जाते थे। तात्पर्य इतना ही है कि वे सभी कार्य प्रसन्नचित्त होकर करते थे, केवल नेम ही नहीं निबाहते थे। गुणियों का सत्कार गुण ग्राहकता के भारतेन्दु जी स्वरूप ही थे। यह केवल कवि ही के आश्रयदाता या कविता ही के गुण ग्राहक नहीं थे प्रत्युत् प्रत्येक गुण या उत्ताम वस्तु के ग्राहक थे। इनके पास कोई भी किसी प्रकार की उत्तम वस्तु लेकर आता तो वह विमुख होकर नहीं जाता था। हिन्दी मातृमंदिर के साधारण से साधारण पुजारी का भी यह सन्मान करते, किसी अन्य विद्या या कौशल के पंडित का पूरा सत्कार करते, यहाँ तक कि अपव्ययी या फिजूल खर्च कहला कर भी अच्छे वस्तु के विक्रेता को कोरा नहीं लौटाते थे। उदाहरण के लिये इत्र ही लोजिये। कई विद्वानों तथा खंडाचार्यो को भी दीपावली में इत्र के दिये बालने और शरीर में पोतने की बात कहकर इनके अपव्यय या नाजुक मिजाजी की प्रशंसा करते सुना है । वास्तव में बात यह थी कि दिल्ली तथा लखनऊ की बादशाहत समाप्त हो गई यो और वहाँ के इस प्रकार की ऐशो आराम की चीजों के बेचने वाले इधर उधर अन्य नगरों में सामान लेकर घूमने लगे थे। काशी में आने वाले ऐसे विक्रेता भारतेन्दु जी के पास अवश्य आते थे। ये सभी से कुछ न कुछ क्रय करते, इनमें इत्र भी होता था। ऐसे इत्रफरोश मेरे बाल्यकाल तक बराबर आते थे और उनकी बातें भी सुनने ही लायक होती थी । इस प्रकार खरीदने से व्यय होते हुए भी एकत्र हुआ इत्र दीपावली में बालने ही के काम आता था। यही इस अपव्यय का मर्म है। इसीलिए लोगों ने कहा है
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