पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४०१

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परिशिष्ट प्रा] ६६५. भाषाएँ एक सी थीं । परन्तु पीछे दोनों की शैलियाँ भिन्न भिन्न हो गयीं । वे विदेशी शब्दों पर झुके और ये स्वदेशी पर । वे कदा- चित् गवर्नमेंट की इच्छा से लाचार थे, क्योंकि तब से भाज तक पाठ्य पुस्तकों की भाषा उर्दू मिली ही देखी गई । बहुतेरों ने इधर नई नई पुस्तके लिखीं, परन्तु भाषा उनकी निरी उर्दू ही है। यों ही लेख भी सर्वथा सूखे और निर्जीव से थे जिनमें राजी साहिब की उर्दू मिली भाषा की शतांश भी रोचकता और पुष्टता नहीं। कुछ अन्य लोग भी इसी भ्रम में पड़कर अपनी भाषा में उर्दू पन ला चले । कदाचित् उन्होंने समझा कि, पारसी अरबी शब्द भा देने से ही इबारत दिलचस्प हो जायगी । परन्तु सिर्फ इसी बात से उस नबात को मिठास कब आ सकती थी अस्तु, राजा साहिब केवल पाठ्य पुस्तकों को ही लिख गए और वे केवल अच्छा गद्य ही लिख सकते थे, परन्तु बाबू हरि.. श्चन्द्र ने साहित्य का कोई भाग ही अछूता न छोड़ा और सब में अपनी समान योग्यता दिखला कर सभी रुचि के लोगों के मन में स्थान किया। न स्वयं उन्होंने ही लिखा, परन्तु औरों से भी लिखवाया एवं लोगों में लिखने पढ़ने की रुचि फैलाई । लिखने में वे स्वयं इतने अभ्यस्त और सिद्धहस्त थे कि, यदि यह कहें कि, यावज्जीवन उनकी लेखनो चलती ही रही, तो भी अयुक्त न होगा । वास्तव में वह सदैव लिखने ही पढ़ने में व्यस्त रहते थे, और विचित्रता तो यह कि सैंकड़ों मनुष्यों में बैठे भाँति भाँति का गप्पाष्टक होता, तो भी उनको लेखनी चली ही जाती थी । इसी से वे इतनी थोड़ी अवस्था में इतने ग्रंथ लिख सके । चार सामयिक पत्रों का सम्पादन भी करते थे, अर्थात् कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन वा हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, बालाबोधिनी ( जो बरस ही ६ महीने चली ) और भगवद्भक्ति तोषिणी (यह