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भारत का संविधान

 

भाग ३—मूल अधिकार—अनु॰ १९–२१

(३) उक्त खंड के उपखंड (ख) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिये गये अधिकार क प्रयोग पर सार्वजनिक व्यवस्था के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये रुकावट, न डालेगी।

(४) उक्त खंड के उपखंड (ग) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिये गये अधिकार के प्रयोग पर सार्वजनिक व्यवस्था या सदाचार के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनानेमें राज्य के लिये रुकावट, न डालेगी।

(५) उक्त खंड के उपखंड (घ), (ङ) और (च) की कोई बात उक्त उपखंडों द्वारा दिये गये अधिकारों के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों के अथवा किसी अनुसूचित आदिमजाति के हितों के संरक्षण के लिये युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये रुकावट, न डालगी।

(६) उक्त खंड के उपखंड (छ) की कोई बात उक्त खंड द्वारा दिये गये अधिकार के प्रयोग पर साधारण जनता के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई वर्तमान विधि लगाती हो वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा वैसे निर्बन्धन लगाने वाली कोई विधि बनाने में राज्य के लिये रुकावट, न डालेगी; तथा विशषतः [१][उक्त उपखंड की कोई बात—

(१) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने के लिये आवश्यक वृत्तिक या शिल्पिक अर्हताओं से, या
(२) राज्य के द्वारा अथवा राज्य के स्वाभित्वाधीन या नियंत्रणाधीन बाल निगम द्वारा कोई व्यापार, कारबार, उद्योग या सेवा नागरिकों का पूर्णतः या आंशिक अपवर्जन कारक या अन्यथा चलाने से,

जहां तक कोई वर्तमान विधि संबंध रखती है वहां तक उस के प्रवर्तन पर प्रभाव, अथवा सम्बन्ध रखने वाली किसी विधि को बनाने में राज्य के लिए रुकावट, न डालेगी] अपराधों के लिये
दोषसिद्धि के
विषय में सरक्षण
२०. (१) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये सिद्ध-दोष नहीं ठहराया जायेगा, जब तक कि उसने अपराधारोपित क्रिया करने के समय किसी प्रवृत्त विधि श का अतिक्रमण न किया हो, और न वह उससे अधिक दंड का पात्र होगा जो उस अपराध के करने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन दिया जा सकता था।

(२) कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिये एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित न किया जायेगा।

(३) किसी अपराध में अभियुक्त कोई व्यक्ति स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य न किया जायेगा।

प्राण और दैहिक
स्वाधीनता का
संरक्षण

२१. किसी व्यक्ति को अपने प्राण अथवा दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़ कर अन्य प्रकार वंचित न किया जायेगा।


  1. संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, १९५१, धारा ३ द्वारा कुछ मूल शब्दों के स्थान पर रखा गया।

5—1Law57