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वर्तमान खण्ड


अानन्द-मद् में मग्न थे जिस देश के वासी समी,
सुर भी तरसते थे जहाँ पर जन्म लेने को कभी ।
हा ! आज उसकी यह दशा, सन्ताप छाया सब कहीं,
सुर क्या, असुर भी अब यहाँ का जन्म चाहेंगे नहीं ।। २७ ।।

कृषि और कृषक अब पूर्व की-सी अन्न की होती नहीं उत्पत्ति है, पर क्या इससे अब हमारी घट रही सम्पत्ति है ?
यदि अन्य देशों के यहाँ से अन्न जाना धन्द हो-
तेा देश फिर सम्पन्न हो, क्रन्दन रुके, अनिन्द ही ॥ २८ ॥

वह उरिपन भूमि का कम हो गया है, क्यों न हो ?
होता नहीं कुछ यत्न उसका, यत्र कैसे हो, हो ?
करते नहीं कष्क परिश्रम, और मैं कैसे करें ?
कर-बृद्धि है जब साथ तब क्यों चे वृथा श्रम कर मरे ? ।।२९।।

सौ में पचास जन यहाँ निर्वाह कृषि पर कर रहे,
पाकर करोड़े अद्ध भोजन सद भर रहे ।।
जब पैट को ही पड़ रही फिर और की क्या बात है;
झोली नहीं हैं भक्ति भूखे उक्ति वह विख्यात है ।। ३० ।।

१–छुतदेवहि देवा यिन्ति-

अहो अमीष भिकारि शोभनं सन्न रुप स्विदुत स्वयं हरिः । दौर्जन्म लब्धं नृषु भारतजिरे मुकुन्दसेवौपर्थिक स्पृहा हि नः ॥

श्रीमद्भागवत ।