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भारत-भारती

कृषि-कर्म को उत्कर्षता सर्वत्र विश्रुत है सहो,
पर देख अपने कर्षकों को चित्त में आता यही—
हा देव! क्या जीते हुए आजन्म भरना था उन्हें?
भिक्षुक बनाते पर विधे! कर्षक न करना था उन्हें।।३१।।
कृषि में अपेक्षा वृष्टि को रहती हमें अब है सदा,
होता जहाँ चैपम्य उसमें क्या कहें फिर अपदा।
रहता अवर्षण से अहो! अब जो हमारा हाल है,
दृष्टान्त उसका इन दिनों गुजरात का दुष्काल है।।३२।।
था एक ऐसा भी समय पड़ता अकाल न था यहाँ२,
हो या न हो वर्षा जलाशय थे यथेष्ट जहाँ तहाँ।
भारत पढ़ो३, देवर्षि ने है क्या युधिष्ठिर से कहा—
“कृषि-कायर्य वर्षा की अपेक्षा के बिना तो हो रहा है?।।३३।।

१—सन् १९१२ ई०।

२-एक यूनानी राजदूत ने जो कि चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा था, आश्चर्य और प्रशंसा के साथ लिखा है कि देश के अधिक भाग में सिंचाई का प्रवन्ध होने के कारण इस देश में अकाल पढ़ता ही न था। और बोई हुई भूमि के पास ही युद्ध और लड़ाइयाँ होती थीं परन्तु युद्ध करने वालों में से कोई भी किसान या उसकी खेती से कुछ हानि नहीं पहुँँचता था। चन्द्रगुप्त के हिन्दू राज्य का बल और विस्तार, उसके राज्य में जान और माल की रक्षा और इस प्राचीन समय में खेती और सिंचाई के प्रबन्ध की उत्तम दशाओं का वर्णन ऐसा है जिसे आज कल का प्रत्येक हिन्दू उचित अभिमान के हाथ स्मरण करेगा।

आर.सी.दप्त।
 

३—समापर्व।