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भारत-भारती


जब अन्य देशों के कृषक सम्पत्ति में भरपूर हैं-
लाते कि जिनसे आठ रुपया रोज के मजदूर हैं।
तव चार पैसे रोज ही पाते यहाँ कृर्षक अहो !
कैसे चले संसार उनका, किस तरह निर्वाह हो ? ॥ ३८।।

बीता नहीं बहु काल उस औरङ्गजेबी के अमी --
करके स्मरण जिसका कि हिन्दू काँप उठते हैं समी।
उस दुःसमय का चावलों को आठ मने का भाव है,
पर आठ सैर नहीं रहा अव, क्या अपूर्व अमाव है ! ।। ३९।।

होती नहीं है कृषि यहाँ पूरी तरह से अब कभी,
चद्यपि शुभाशा चित्त में होती हमें हैं जब कभी ।
पाल। कहीं, ओलं कहीं, लगता कहीं कुछ रोग है,
पहले शुभाशा, फिर निराशर, देव ! कैसा थेग है ? ।।४०।।

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा-सा जल रहा,
है चल रहा सनसन पवन, तन से पसीना ढल रहा !
देखा, ऋषक शेरणित सुखा कर हल तथापि चल रहे,
किस लेाभ से इस च में वे निज शरीर जला रहे ! ।।४१।।

मध्याह्न है, उनकी स्त्रियाँ ले रेटियों पहुंची वहीं,
है रे दियाँ रूखी, खबर है शोक को हुमके नहीं !
सन्तेाष से खाकर उन्हें वे, काम में फिर लग गये,
भर पेट भेजन पा गये हे भाग्य माने जग गये ! ।। ४२ ।।

१-औरगजे छ के जमाने में, इङ्काल में, जब कि उसका सूबेदार शाइस्ताखाँ था, एक रुपये के आठ मन चाबेल बिकते थे।