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भारत-भारती




यह अन्न सो ले में विदेशो, लाभ क्या उनको कहो ?
मिलता उन्हें जो अद्धभोजन विघ्र उसमें भी न हो !
कहते इसीसे हैं कि क्या अजन्म मरना था उन्हें ?
भिक्षुक बनाते पर विधे! कृष्क न करना था उन्हें ! ।।४८।।

हैं वे असभ्य तथा अशिक्षित, भाव उनके भ्रष्ट हैं;
दुख-भार से सुविचार मानों हो गये सब नष्ट हैं !
अपनी समुन्नति के उन्हें कुछ भी उपाय न सूझते,
अपना हिताहित भी न कुछ वे हैं समझते बुझते !!।।४९।।

सज्ञान कैसे हों, उन संयोग ही मिलता नहीं,
विख्यात कमलालय कमल भी दिन विना खिलता नहीं ?
है पेट से ही पेट की पढ़ती उन्हें, वे क्या करे !
चे ग्वाल हो जाते रहें या छात्र बन भूखों मरे ? ।।५०।।

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा हैं, कुछ न उनको ज्ञान है,
हैं वायु केन च रहे, इसका न कुछ भी ध्यान है ?
मानों भुवन से भिन्न उनका दूसरा ही लोक है,
शशि-सूरी हैं, फिर भी कहीं उसमें नहीं आलोक है ! ।।५१।।

भर पेट भोजन ही चरम सुख में अकिञ्चन मानते,
पर साथ ही दुभाग्य-चश दुर्लभ उसे हैं जानते !
दिन दु:ख के हैं भर रहे करते हुए सन्तोष थे,
लाचार हैं, निज भाग्य को ही दे रहे हैं दोष थे ।।५२।।