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वर्तमान खण्ड


वह भी समय था एक जो अब स्वप्न जा सकता कहा,
घो तीस सेर विशुद्ध रुपये में हमें मिलता रहा ।।
देहात में मां से भर से अव अधिक मिलता नहीं है
दुर्बल हुए हम आज थे--तनुभार भी झिलता नहीं !! ॥६२।।

दाँतों तले तृण दान कर हैं दीन गायें कह रहीं*
हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर येाग्य क्या तुमके यही ?
हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया,
देकर कसाई का हमें तुमने हमारा वध किया ! ।। ६३ ।।

“जे जन हमारे मांस से निज देह-पुष्टि विचार के--
उदरस्थ हमकेा कर रहे हैं, कृरता से मार के ।
मालूम होता हैं सदा, धारे रहेंगे देह वे-
या साथ हो ले जायेंगे उसके बिना सन्देह वे ! ।। ६४ ।।

हा ? दूध पीकर भी हमारा पुष्ट होते ही नहीं,
दधि, घृत तथा तक्रादि से भी तुष्ट होते हो नहीं ।
तुम खून पीना चाहते हो, तो यथेष्ट वही सही;
नर-येानि हो, तुम धन्य हो, तुम जे करे थे। वहो ! ।।६५।।

१.-अलाउद्दीन खिलजी का हाल लिखते हुए राजा शिवप्रसाई सितारे हिन्द कहते हैं-

तवारीव फरिस्त में लिया है कि इस वक्त दिल्ली में अके हिसाब से एक रुपये का दो मन गेहूँ बिकता था और पौने चार जब, ६ सात से की मिसरी थी और तीस सेर का धीं ।

इतिहास तिमिरशिक, पटा खण्ड १० २३ ।