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भारत-भारती


जाकर विदेश अनेक अब तक युवक अपने आ चुके,
पर देश के वाणिज्य-हित की ओर कितने हैं झुके ?
हैं कारस्थाने कौन-से उनके प्रयत्नों से चले ?
क्या क्या सु-फल निज देश में उनसे अभी तक हैं फले?।।१४४।।

अमरीकन के पात्र जूठे साफ कर पण्डित हुए,
सच्चे स्वदेशी मान से फिर भी नहीं मण्डित हुए !
दृष्टान्त बनते हैं अधिक वे इस कहावत के लिए-
‘बारह बरस दिल्ली रहे पर माड़ ही झका किये !” ॥१४५॥

दासत्व के परिणाम वाली आज है शिक्षा यहाँ,
हैं मुख्य दे ही जो दिकाएँ-नृत्यता, भिक्षा यहाँ ।
या तो कहीं न करे मुहरिर पेट का पालन करो,
या मिल सके तो भीख माँगो, अन्यथा भूखों मरो ! ॥१४६।।

बिगड़े हमारे अब समी स्वाधीन के व्यवसाय हैं,
भिक्षा तथा बस भृत्यतः ही अजि शेष उपाय हैं ।
पर हाथ ! दुर्लभ हो रही है प्राप्ति इनकी भी यहाँ,
यह कौन जाने इम पतन कई अन्त अब होगा कहाँ ! ।।१४७।।

वह साम्प्रतिक शिक्षा हमारे सथिर प्रतिकूल है,
हममें, हमारे देश के प्रति, दुप-मति की मूल है।
हममें विदेशो-भाव भर के वह भुलाती है हमें,
सब स्वास्थ्य का संहार करके वह रुलाती है हमें !! ।।१४८।।