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अतीत खण्ड

यह नियम है, उद्यान में पक कर गिरे पत्ते जहाँ,
प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ ।
पर हाय ! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल हैं,
पतझड़ कह या सूखना, कायापलट या काल है ! ।। ९ ।।

अनुकूल शोभा-मूल सुरभित फूल वे कुम्हला गये,
फलते कहाँ हैं अब यहाँ वे फल रसाल नये नये ?
बस, इस विशालोद्यान में
अब झाड़ या झंखाड़ हैं,
तनु सूख कर काँटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ हैं ।। १० ।।

दृढ़-दुःख-दावानल इसे सब ओर घेर जला रहा,
तिस पर अदृष्टाकाश उलट विपद-वर्ष चला रहा ।
यद्यपि बुझा सकता हमारा नैत्र-जल इस आग को
पर धिक् हमारे स्वार्थमय सूखे हुए अनुराग को ।। ११ ।।

सहृदय जनों के चित्त निर्मल कुड़क जाकर काँच-से
होते दया के वश द्रवित हैं तप्त हो इस आँच से ?
चिन्ता कभी भावी दशा की, वर्धमान व्यथा कभी---
करतो तथा चंचल उन्हें है भूतकाल-कथा कभी ।। १२ ।।

जो इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहाँ,
क्या कुछ सजग होंगे सखे ! उसको सुनेगे जो जहाँ ?
कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता,
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता ? ।। १३ ।।