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भारत-भारती




भारत-भारती करके सु-शिक्षा की उपेक्षा य पतित हम हो रहे,
हो प्राप्त पशुता को स्वयं मनुजत्द अपना खो रहे है।
आहार, निद्रा अदि में नर और पशु क्या सम नहीं ?
है ज्ञान को बस भेद सो भूले उसे क्या हम नहीं ? ।। १५४।।

धर्मोपदेशक विश्व में जाते जहाँ से थे सदा,
शिक्षार्थ आते थे जहाँ संसार के जन सर्वदा ।
अज्ञान के अनुचर वहाँ अब फिर रहे फूले हुए,
हम आज अपने आपके भी हैं स्वयं भू. हुए ।।१५५।।

अपमान हाय ! सरस्वती का कर रहे हम लोग हैं,
पर साथ ही इस धृष्टता का पा रहे फल-भरा हैं ?
निज देवता के केप में कल्याण किसका है मला,
हम मोह-मुग्ध फैसा रहे हैं आप ही अफ्ना गला ।।१५६।।

साहित्य


उस साम्प्रतिक साहित्य पर भी ध्यान देना चाहिए,
उसको अवस्था भी हमें कुछ जान लेना चाहिए ।
मृत हो किं जीवित, जाति का साहित्य जीवन-चित्र है,
वह भ्रष्ट है तो सिद्ध फर वह जाति भी अपवित्र है ।।१५७।।

जिस जाति का साहित्य था स्वर्गीय भावों से भरr--
करने लगा अब बस विषय के विप-विटप को वह हर ।
श्रति, शास्त्र, सूत्र पुराण, रमिायण, महामारत हो,
वे नायिकाभेदादि उनके स्थान में हैं श्री डटे ! ! ।।१५८।।